अजय सेतिया / यूरोप की आँखें खुल रही हैं। फ्रांस, बेल्जियम, ऑस्ट्रिया बुल्गारिया, डेनमार्क और नीदरलैंड के बाद अब स्विट्जरलैंड में भी मुस्लिम महिलाओं के बुर्का या नकाब पहनने पर प्रतिबंध लगेगा। वहां रहने वाले सभी मुसलमानों की जड़ें तुर्की, बोस्निया और कोसोवो में हैं, स्थानीय मुसलमान नाममात्र भी नहीं हैं। बुर्के और नकाब पर प्रतिबंध का यह फैसला स्विट्जरलैंड सरकार की इच्छा के खिलाफ जनमत संग्रह के जरिए हुआ है। लेकिन स्विट्जरलैंड में 50000 वोटर जनमत संग्रह की माग करते हैं, तो जनमत संग्रह करवाना पड़ता है, यहाँ तक कि संसद से पारित कानून पर भी जनमत संग्रह होता है। स्विट्जरलैंड की संसद और देश की संघीय सरकार का गठन करने वाली सात सदस्यीय कार्यकारी परिषद ने इस मुद्दे पर जनमत संग्रह प्रस्ताव का विरोध किया था। स्विस सरकार भी भारत के सेक्यूलरों की तरह वोट बैंक की राजनीति के कारण बुर्का बैन के पक्ष में नहीं थी। हालांकि जिस प्रस्ताव पर जनमत संग्रह हुआ, उस में 'नकाबÓ या 'बुर्काÓ शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया था, लेकिन सभी को पता था कि जनमत संग्रह क्यों और किस लिए हो रहा है। स्विस नागरिक मानते हैं कि 'बुर्का या नकाबÓ जैसी धार्मिक रिवायतें महिलाओं के उत्पीडऩ का प्रतीक हैं, जो स्विस समाज के लिए उपयुक्त नहीं हैं।
अब 51 प्रतिशत से ज्यादा नागरिकों ने फैसला किया कि सडकों, गलियों, पार्कों, रेस्टोरेंटों पर कोई अपने चेहरे को पुरी तरह से नहीं ढक सकता। स्वास्थ्य और सुरक्षा कारणों से पहने जाने वाले फेस कवरिंग पर भी प्रतिबंध से छूट है, मतलब कोविड -19 महामारी के कारण पहने जाने वाले फेस मास्क नए कानून से प्रभावित नहीं होंगे। स्वाभाविक है कि स्विट्जरलैंड के मुस्लिम संगठनों ने प्रतिबंध की आलोचना की है। स्वीटजरलैंड के इस फैसले बाद अपन को भारत का ख्याल आया। कहीं भारत के मुसलमान स्वीटजरलैंड के खिलाफ सड़कों पर उतर आए तो क्या होगा। यह ख्याल अपन को इस लिए आया क्योंकि भारत में पहले ऐसा हो चुका है। 1919 में तुर्की के खलीफा को हटा दिया गया था और कई तरह के धार्मिक प्रतिबंध लगा दिए गए थे। तुर्की में खलीफा का शासन खत्म होने पर भारत के मुसलमानों ने खिलाफत आन्दोलन शुरू किया था, जिस में देश के सभी मुसलमान सड़कों पर उतर आए थे। शौकत अली और मुहम्मद अली के इस आन्दोलन को कांग्रेस नेता मौलाना अबुल कलाम आजाद ने अपने रसाले 'अल हिलालÓ में और कम्युनिस्ट नेता मोहम्मद अली ने अपने रसाले 'कामरेडÓ में खूब प्रचारित किया। कांग्रेस के कई नेता और खुद को नास्तिक कहने वाले कम्युनिस्ट खिलाफत आन्दोलन के समर्थन में थे। महात्मा गांधी ने न सिर्फ खिलाफत आन्दोलन का समर्थन किया बल्कि 1919 में दिल्ली में हुए खिलाफत आन्दोलन के सम्मेलन की अध्यक्षता की थी।
इस आन्दोलन का अंग्रेजों पर कोई असर नहीं हुआ, 2024 में कमाल पासा की तुर्की सरकार ने खलीफा पद को पुरी तरह खत्म कर दिया तो पांच साल तक भारत में चला खिलाफत आन्दोलन भी अंतत: फेल हो गया। उस आन्दोलन का भारत से कुछ लेना देना नहीं था, लेकिन इसी खिलाफत आन्दोलन के दौरान केरल के मालाबार में मोपला मुसलमानों के विद्रोह में लाखों हिन्दुओं को मौत के घाट उतार दिया गया था। केरल के हिन्दू इसे कभी नहीं भूलेंगे कि महात्मा गांधी ने खिलाफत आन्दोलन का समर्थन कर के हिन्दुओं का कत्ल-ए-आम करवाया था। क्या आज हालात बदल गए हैं, फलिस्तीन और इस्राईल में जब जब झगड़ा होता है, भारत के मुसलमान इस्राइल दूतावास के सामने प्रदर्शन करते हैं। मुस्लिम वोट बैंक के लिए कांग्रेस 50 साल तक फलिस्तीन का समर्थन करती रही, इस्राईल को तो मान्यता तक नहीं दी थी।
नागरिकता संशोधन कानून से भी भारत के मुसलमानों का कुछ लेना देना नहीं था, लेकिन उन्होंने कानून के खिलाफ आन्दोलन शुरू किया तो कांग्रेस और कम्युनिस्टों ने खिलाफत आन्दोलन की तरह ही उन्हें समर्थन किया। पूर्वी दिल्ली में योजनाबद्ध ढंग से 'मोपला” दोहराया गया। जरा सोचिए कि सीएए के खिलाफ आन्दोलन की विफलता से जले-भुने बैठे भारत के मुसलमान अगर अब स्विट्जरलैंड के बुर्का बैन का विरोध करते हुए सड़कों पर उतरे तो क्या होगा। कांग्रेस और कम्युनिस्ट उन का उसी तरह समर्थन करेंगे जैसे खिलाफत और सीएए विरोधी आन्दोलन का समर्थन किया था।
आपकी प्रतिक्रिया