नई दिल्ली। बच्चों के लिए श्री कैलाश सत्यार्थी को नोबेल शांति पुरस्कार मिलने की छठी वर्षगांठ पर इंडिया फॉर चिल्ड्रेन और कैलाश सत्यार्थी चिल्ड्रेन्स फाउंडेशन (केएससीएफ) की ओर से ‘‘कोरोनाकाल, बच्चे और मीडिया’’ विषयक एक परिचर्चा का आयोजन किया गया। परिचर्चा में देश के जाने-माने पत्रकार पद्मश्री श्री आलोक मेहता, वरिष्ठ पत्रकार और उत्तराखंड बाल अधिकार संरक्षण आयोग के पूर्व अध्यक्ष श्री अजय सेतिया, अमर उजाला डिजिटल के संपादक श्री जयदीप कार्णिक, हिंदुस्तान लाइव के संपादक श्री प्रभाष झा और लेखक एवं फिल्म निदेशक श्री जैगम इमाम ने भाग लिया।
पद्मश्री से सम्मानित जानेमाने पत्रकार श्री आलोक मेहता ने कहा कि कोरोनाकाल में बच्चों के लगातार घर में रहने और किसी से नहीं मिलने-जुलने का मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ा है। इससे एक ओर यदि वे काफी चिड़चिड़े हो गए हैं, वहीं दूसरी ओर उनके मन में एक बड़ा डर भी बैठ गया है। अपने मां-बाप के अलावा किसी और को देखते ही भाग जाते हैं। इस डर को निकालने की जरूरत है। पहले बच्चों पर मीडिया में चर्चा होती थी। लेकिन अब वह नहीं होती। राजेंद्र माथुर और अज्ञेय जैसे पत्रकारों-साहित्यकारों ने इस दिशा में काफी कुछ किया है। अगले साल बच्चों एवं महिलाओं के लिए केंद्र सरकार एक ऐसा बजट पेश करे जो दुनिया के अन्य देशों के लिए भी नजीर बने। बच्चों के प्रति पूरे देश में जागरुकता और संवेदनशीलता बढ़े इसके लिए जरूरी है कि प्रत्येक पंचायत में उनके लिए पत्रिका हो। अखबार हो। पहले चंपक, पराग और नंदन गांव में भी देखने को मिल जाती थी अब वे भी बंद हो गई हैं।
वरिष्ठ पत्रकार और उत्तराखंड बाल अधिकार संरक्षण आयोग के पूर्व अध्यक्ष श्री अजय सेतिया ने कहा कि वे जब उत्तराखंड में बाल आयोग के अध्यक्ष थे तब उन्होंने बाल अधिकारों के प्रति मीडिया में संवेदनशीलता बढाने के लिए संपादकों को पत्र लिखा था कि वे अपने बीट पत्रकारों को आयोग के प्रशिक्षण शिविरों में भेजें ताकि पत्रकार बच्चों से जुड़े मुद्दों और बच्चों से जुड़े कानूनों की बारिकियों को समझ सकें , इससे उनकी रिपोर्टिंग ज्यादा पुष्ठ और ज्यादा धारदार बनेगी । लेकिन उन्हें इस में अपेक्षित सफलता नही मिली ।
अजय सेतिया ने कहा कि कोरोनाकाल में जब से मजदूरों की अपने-अपने गांवों में वापसी हुई है उनके बच्चों की शिक्षा अवरुद्ध हुई है। गांवों में अभी भी इंटरनेट की सुविधा नहीं है इसलिए वे आनलाइन शिक्षा हासिल नहीं कर सके हैं । राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग और राज्यों के बाल अधिकार संरक्षण आयोग कोराना काल में बच्चों के अधिकारों की रक्षा करने में नाकाम रहे , किसी भी आयोग ने मिलों मील पैदल चलने वाले बच्चों की सुध नहीं ली, किसी आयोग ने किसी राज्य सरकार को नोटिस नहीं दिया । मीडिया ने बच्चों की दुर्दशा को सरकार के सामने रखने की अपनी भूमिका नहीं निभाई । उन्होंने जोर देकर कहा कि सरकार को शिक्षा पर बजट तीन प्रतिशत से बढ़ाकर छह प्रतिशत करना चाहिए । सेतिया ने कहा कि बाल अधिकारों के लिए सबको मिल-जुलकर काम करने की जरूरत है। इसके लिए मीडिया के साथ-साथ समाज और सरकार को भी सामने आना होगा।
अमर उजाला डिजिटल के संपादक श्री जयदीप कार्णिक ने कहा कि कैलाश सत्यार्थी ने नोबेल पुरस्कार प्राप्त कर बाल मजदूरी को वैश्विक मुद्दा बना दिया। कोरोनाकाल में बच्चों को मीडिया ने उतना कवर नहीं किया जितना करना चाहिए था। कोरोना ने बच्चों के मनोविज्ञान पर प्रभाव डाला, जिसको मीडिया समझने में विफल रहा। लेकिन हम सब कोशिश करेंगे कि हम अपने मीडिया संस्थान में बच्चों के प्रति संवेदनशीलता बढाएं। मीडिया में बच्चों के लिए जगह निकालनी होगी। न्यूजरूम को बच्चों के प्रति संवेदनशील होना होगा।
लाइव हिंदुस्तान के संपादक प्रभाष झा ने कहा कि बच्चों से जुड़े सिर्फ 6 फीसदी मामलों को ही मीडिया में कवर किया जाता है। उसमें भी अपराध से संबंधित खबरे ज्यादा होती हैं। मीडिया में बच्चों से जुड़े मामले इसलिए भी नहीं आ पाते हैं क्योंकि वहां पर रिपोर्टर को पहले ही कह दिया जाता है कि उन्हें 3-सी यानी क्राइम, क्रिकेट और सैलिब्रेटी को तवज्जो देनी है। मीडिया में बच्चे भी प्राथमिकता से आ पाएं इसके लिए हमें न्यूजरूम में विविधता का पालन करना होगा। नयूजरूम के साथ-साथ हमें अपने-अपने घरों को भी बच्चों के प्रति संवेदनशील बनाना होगा, क्योंकि बच्चों की शिक्षा घर से ही शुरू होती है। यह बात सही है कि वोटबैंक नहीं होने के कारण बच्चों का जिस तरह से राजनीति पर दबाव नहीं बन पाता है उसी तरह से मीडिया में भी उनको फोकस नहीं किया जाता है।
लेखक एवं फिल्म निदेशक जैगम इमाम का कहना था कि अपने पत्रकारिता के अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूं कि मीडिया बच्चों के प्रति जवाबदेह नहीं है। बच्चे देश के इतने महत्वपूर्ण घटक हैं कि सत्यजीत रे जैसे फिल्मकार भी बच्चों को केंद्र में रखकर अपनी फिल्में बनाते हैं। ‘’पाथेर पांचाली’’ और ‘’अपूर संसार’’ जैसी महान फिल्में इसके उदाहरण हैं। मीडिया में बच्चों के लिए यदि संवेदनशीलता नहीं है तो इसका मतलब है कि बच्चों के प्रति वहां ‘अनुराग’ नहीं है। इसलिए इस अनुराग को पहले पैदा करना होगा। बच्चों के जरिए हम समाज के अनदेखे कोने को सामने ला सकते हैं। मीडिया को संवेदनशीलता दिखानी चाहिए, नहीं तो आने वाला कल का भारत गड़बडि़यों से भरा होगा।
कुछ तकनीकी गड़बडि़यों को छोड़कर परिचर्चा सार्थक और सफल रही। वक्ताओं ने कोरोनाकाल में मीडिया में बच्चों के प्रति उपेक्षाभाव पर चिंता व्यक्त की और कहा कि मीडिया में इस अत्यंत जरूरी मुद्दे के प्रति संवेदनशीलता बढाए जाने की जरूरत है।
बच्चों के लिए नोबेल शांति पुरस्कार प्राप्ति की छठी वर्षगांठ के पांचवें दिन आयोजित यह कार्यक्रम ‘’फ्रीडम वीक’’ के तहत आयोजित किया गया। पिछले पांच दिनों से वर्चुअल परिचर्चाओं और फिल्म स्क्रीनिंग का यह सिलसिला अभी चल रहा है। इसके तहत अभी 2 और विशेष परिचर्चाओं का आयोजन होना है, जिसमें श्री कैलाश सत्यार्थी के काव्य संग्रह और पुस्तक ‘’सभ्यता का संकट और समाधान’’ का भी विमोचन होगा।
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