अजय सेतिया / संसदीय इतिहास में सब से छोटे मानसून सत्र का सत्रावसान हो गया | सत्र बुलाया तो 18 दिन के लिए गया था , लेकिन सिर्फ दस दिन में निपटाने का फैसला हो गया | सत्र छोटा रहा तो इस का यह मतलब नहीं कि कामकाज अधूरा रह गया | विपक्ष ने राज्यसभा में आख़िरी तीन दिन और लोकसभा में आख़िरी दो दिन बायकाट कर के सरकार का काम आसान ही किया | इन्हीं तीन दिनों में सर्वाधिक बिल पास हुए | सरकार ने 18 दिन का अपना काम 10 दिन में निपटा लिया | हालांकि यह अच्छी बात हुई कि टकराव से पहले 20 सितम्बर को ही जल्दी सत्रावसान की सहमती बन गई थी |
कृषि सम्बन्धी तीन अध्यादेशों को ले कर कांग्रेस की भूमिका हास्यस्पद रही , इन में से दो मुद्दों पर कांग्रेस घोषणा पत्र में हू-ब-हू वायदा किया गया था | इतना ही नहीं पी.चिदम्बरम और कपिल सिब्बल के वे वीडियो भी सामने आ गए , जिन में उन दो मुद्दों की जोरदार वकालत की गई थी | इन में एक बिल कृषि उत्पादों की जमाखोरी से जुड़ा था , तो दूसरा किसानों को मंडियों से बाहर उत्पाद बेचने की छूट से सम्बन्धित था | इन दोनों बिलों पर कपिल सिब्बल का भाषण तो संसद के भीतर ही हुआ था, जिस का वीडियो जारी होने के बाद कांग्रेस मुहं छुपाने लायक नहीं रही | जमाखोरी पर प्रतिबंध 1955 के क़ानून से था , जब भारत अनाज में आत्म निर्भर नहीं था और जमाखोर व्यापारी भुतियात में खरीद कर गोदाम भर लेते थे , बाज़ार में कमी दिखा कर मनमाने दामों पर उपभोक्ताओं को बेचते थे, लेकिन अब ऐसी स्थिति नहीं है , इस लिए व्यापारियों को भंडारण की छूट दी गई है ताकि सरकारी गोदामों पर बोझ घटाया जा सके | दूसरा बिल किसानों को मंडियों के आढतियों की गुलामी से मुक्त करवाने वाला है , किसान अपना उत्पादन वहां बेच सकेंगे , जहां उन्हें बेहतर कीमत मिलेगी | हरियाणा के कई किसान तो पहले भी छोटी ट्रालियों में माल भर कर दिल्ली और राजस्थान में बेचा करते थे , लेकिन इस के लिए उन्हें बार्डर पर मंडी के कर्मचारियों और पुलिस की मुठ्ठी गर्म करनी पडती थी |
पता नहीं क्यों और किस मुहं से कांग्रेस ने इन दोनों बिलों का विरोध किया और बाद में गुलाम नबी आज़ाद ने तो राष्ट्रपति से भी मुलाक़ात कर के उन से आग्रह किया कि वह तीनों पारित बिलों पर दस्तखत न करें, ऐसा कभी होता है क्या | बाकी विपक्ष ने तो कांग्रेस की भेडचाल की भूमिका निभाई | राज्यसभा में तृणमूल कांग्रेस के डेरिक और आम आदमी पार्टी के संजय सिंह ने अपनी पार्टियों की खोखली राजनीति के लिए राज्यसभा की गरिमा को ठेस पहुँचाने वाला काम किया | नतीजा यह निकला कि आठ सदस्य निलम्बित हुए , वैसे समापन भाषण में सभापति वेंकैया नायडू ने कहा कि यह पहली बार नहीं है कि विपक्ष की गैर हाजिरी में बिल पास हुए हों | 2007 और 2012 में ऐसा हो चुका है | सही बात है , विपक्ष सदन को अपने इशारों पर चलने के लिए मजबूर नहीं कर सकता |
शायद विपक्ष बिलों का विरोध तार्किक ढंग से कर ही नहीं सकता था , इसी लिए उस ने गुंडागर्दी वाला रास्ता अपनाया , लेकिन जनता की नजर में खुद की ही छवि खराब की | मीडिया का परम्परागत सरकार विरोधी खेमा ही विपक्ष की हरकतों का समर्थन कर रहा है | कांट्रेक्ट फार्मिंग का तीसरा बिल ज्यादा महत्वपूर्ण था, जिस पर विपक्ष अपना मत रख सकता था , उस के बारे में इतनी भ्रांतियां थी कि सरकार भी जवाब देते थक जाती | पर इस तर्क का तो कोई जवाब नहीं था कि कांट्रेक्ट फसल का होना है , जमीन का नहीं , पहली बात तो यह है कि कौन कौन उद्ध्योगपति या व्यापारी कांट्रेक्ट के लिए सामने आएगा , क्योंकि उसे ज्यादा उपज के लिए जमीन की जांच के अलावा खेती के आधुनिक नए औजारों में निवेश करना पड़ेगा | फिर कोई सामने भी आया तो किसान की मर्जी होगी कि वह कांट्रेक्ट करे या नहीं |
खैर कृषि के तीन बिलों के चक्कर में श्रम से जुड़े तीन क़ानून भी बिना बहस के पास हो गए , गुलाम नबी आज़ाद ने चेयरमेन को चिठ्ठी लिख कर आग्रह किया था कि श्रम से जुड़े बिलों को पास न करवाया जाए , वेंकैया नायडू ने कहा कि वे आ कर बहस करने को तैयार होते तो वह इन्तजार करते , इस लिए उन्होंने वे तीनों बिल भी पास करवा दिए | बहुमत में होने के बावजूद विपक्ष गच्चा खा गया |
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