प्रेस की आज़ादी को आईपीसी की धारा 179 से खतरा

Publsihed: 24.Oct.2020, 15:59

अजय सेतिया / न्यायपालिका और कार्यपालिका के बाद अब विधायिका ने भी मीडिया-प्रेस को लोकतंत्र का चौथा खम्भा मानने से इनकार करना शुरू कर दिया है | संविधान में भले ही प्रेस की आज़ादी के लिए किसी ख़ास प्रावधान का जिक्र नहीं किया गया , हालांकि किया जाना चाहिए था क्योंकि आज़ादी की लड़ाई के दौरान महात्मा गांधी, राजा राम मोहन राय , बाल गंगाधर तिलक , गेंदा लाल दीक्षित , सुरेन्द्र नाथ बेनर्जी आदि अनेकों अनेक स्वतंत्रता सेनानियों ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ जनजागृति के लिए प्रेस का इस्तेमाल किया था | ब्रिटिश राज ने इन सभी स्वतन्त्रता सेनानियों के अखबारों पर समय समय पर प्रतिबंध लगा कर प्रेस की स्वतन्त्रता को नकारा था | इस लिए जरूरी था कि संविधान सभा प्रेस की आज़ादी को भी मूल भूत अधिकारों में शामिल करती , लेकिन भारत का संविधान मूलत ब्रिटिश संविधान और कानूनों की नकल है , इसलिए ब्रिटिश राज की तरह भारत में भी प्रेस की आज़ादी की गारंटी के लिए कोई प्रावधान नहीं रखा गया | जवाहर लाल नेहरु जैसे लोग ब्रिटिश राज की शैली में ही शाषण करना चाहते थे , इसलिए प्रेस की आज़ादी के लिए विशेष प्रावधान नहीं किए गए , अलबत्ता डाक्टर आंबेडकर ने प्रेस की आज़ादी के लिए विशेष प्रावधान का यह कहते हुए विरोध किया कि इस की कोई जरूरत नहीं क्योंकि जब भी कोई सम्पादक अपनी बात लिखता है तो वह एक नागरिक के नाते लिखता है और वह अनुच्छेद 19 (1) में मिली अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार का इस्तेमाल कर रहा होता है |

आप को जानकर हैरानी होगी कि जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल में प्रेस पर सेंसरशिप लगा दिया और हर खबर सेंसर बोर्ड से पास होने के बाद छपने लगी , तो अनेक अखबारों ने अपने सम्पादकीय कालम खाली छोड़ना शुरू कर दिए थे , इस के अलावा उन खबरों की जगह नई खबरें भी नहीं लगाई जाती थीं, जिन खबरों को सेंसर बोर्ड के अधिकारी रद्द कर देते थे | आपातकाल में कार्यपालिका ने प्रेस की आज़ादी को छीन कर अपने नियन्त्रण में ले लिया था | मोरारजी देसाई की रहनुमाई में जनता सरकार आने के बाद पहली बार संसद ने 1978 में प्रेस की आज़ादी और नियन्त्रण के लिए स्वायत प्रेस परिषद का अधिनियम तो बनाया गया ( हालांकि परिषद 1966 से काम कर रही थी ) , लेकिन प्रेस की आज़ादी की गारंटी देने वाला कोई क़ानून फिर भी नहीं बनाया | अधिनियम की धारा 13  के अनुसार, भारतीय प्रेस परिषद् का उद्देश्य प्रेस की स्वतंत्रता को बनाए रखना और भारत में समाचार-पत्रों , समाचार अभिकरणों के मानकों की बनाए रखना और उनमें सुधार लाना है | अधिनियम के अनुसारपरिषद् को सलाहकार की भूमिका भी सौंपी गई है , उसे कोई कानूनी अधिकार नहीं दिए गए कि वह प्रेस की स्वतन्त्रता में बाधा बनने वाली कार्यपालिका के कान मरोड़ सके |

लब्बोलुआब यह कि राज चाहे किसी का हो , विधायिका पर कार्यपालिका हमेशा हावी रही है | क्योंकि कार्यपालिका प्रेस के निशाने पर रहती है , इस लिए कार्यपालिका यानी ब्यूरोक्रेसी कभी नहीं चाहती कि भारत में प्रेस-मीडिया इतना मजबूत हो जाए कि उन के काला कारनामों पर रोक लग जाए , इस लिए वे विधायिका को प्रेस की स्वतन्त्रता का क़ानून बनाने के खतरों से आगाह करते रहते हैं | विधायिका के कार्यपालिका के दबाव में आने का इस से बड़ा सबूत क्या होगा कि प्रेस की आज़ादी को कुचलने के लिए 45  साल बाद भी आए दिन कांग्रेस और इंदिरा गांधी को कटघरे में खड़ा करने वालों के हाथ में अनेक बार सत्ता आ जाने के बाद भी प्रेस की आज़ादी और खबर का स्रोत नहीं बताने की स्वतन्त्रता की गारंटी देने वाला क़ानून नहीं बनाया गया | नतीजतन ब्रिटिश काल की तरह आज़ाद भारत की न्यायपालिका भी गाहे बगाहे पत्रकारों को खबर का स्रोत बताने के लिए बाध्य करती रही हैं | ब्रिटिश शाषण काल में सजा पाने वाले पहले पत्रकार थे सुरेन्द्र नाथ बेनर्जी , उन्होंने एक मुकद्दमें के फैसले के खिलाफ लिखा था , जिस पर उन्हें दो महीने कैद की सजा दी गई थी | बाल गंगाधर तिलक को “मराठा” और महात्मा गान्धी पर  “यंग इंडिया” में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ लिखने पर राष्ट्रद्रोह का मुकद्दमा चला कर छह छह साल कैद की सजा सुनाई गई थी | ब्रिटिश काल से न्यायपालिका की यह मनमानी अब भी जारी है , हाल ही में एक फैसले और जजों की आलोचना करने पर जाने माने वकील प्रशांत भूषण को एक रूपए का जुर्माना किया गया |

ब्रिटिश सरकार ने प्रेस की आज़ादी को कुचलने के लिए सब से पहले 1799 में प्रेस नियन्त्रण क़ानून लागू किया था | इस के बाद प्रेस पर सेंसर , 1823 में प्रेस रजिस्ट्रेशन नियम , 1857 में एक साल के लिए सभी अखबार छापने पर प्रतिबंध , 1867 में प्रकाशन की हर प्रति सरकार को उपलब्ध करवाने का नियम ,1867 में मजिस्ट्रेट को अधिकार दिए गए , 1878 में देशी भाषा समाचार पत्र अधिनियम , 1908 में मजिस्ट्रेटों को समाचार पत्र सीज करने के अधिकार , 1910 में जमानत जब्त का अधिकार | हालांकि बाद में अंतिम दोनों अधिनियम वापस ले लिए गए , लेकिन 1930 , 1931 , 1939 में और कड़े क़ानून बनाए गए , जो आज़ाद भारत में प्रेस की आज़ादी पर अंकुश लगाने के लिए आज भी लागू हैं | हाल ही में रिपब्लिक टीवी न्यूज चेनेल ने टीआरपी के मामले में मुम्बई पुलिस में दायर ऍफ़आईआर की मूल शिकायत को जग जाहिर कर दिया तो चेनल के रिपोर्टर को बुला कर पुलिस ने धमकाया कि वह अपनी खबर का स्रोत बताए , हालांकि अगर खबर गलत थी तो पुलिस कार्रवाई कर सकती थी कि असली शिकायत वह नहीं है , जो टीवी पर दिखाई गई , लेकिन पुलिस की समस्या यह थी कि असली शिकायत जगजाहिर होने से “ रिपब्लिक मीडिया ” को फंसाने की पुलिस की साजिश उजागर हो गई थी , क्योंकि शिकायत में तो रिपब्लिक मीडिया का नाम ही नहीं था | पुलिस यानी कार्यपालिका की मीडिया की आज़ादी को कुचलने की साजिश देखिए कि पत्रकार को धमकाया गया कि सीआरपीसी की धारा 179 के अनुसार उसे अपनी खबर का स्रोत बताना पड़ेगा , नहीं तो उसे गिरफ्तार कर लिया जाएगा और छह महीने की कैद हो सकती है |

ब्रिटिश काल की सीआरपीसी है जो पुलिस को किसी भी नागरिक पर लगाने का अधिकार देती है और इसी का इस्तेमाल पत्रकार से स्रोत पूछने के लिए किया जा रहा है | क्या इस सीआरपीसी में बदलाव की जरूरत नहीं है कि इस में यह जोड़ा जाए कि सीआरपीसी के इस प्रावधान का सरकारी मान्यता प्राप्त पत्रकार से खबर का स्रोत पूछने के लिए नहीं किया जा सकता | यह इस लिए जरूरी है क्योंकि जब जबकि देश में व्हिसल ब्लोअर संरक्षण क़ानून लागू है तो मीडिया पर 179 का इस्तेमाल क्यों ?  हैरानी तो यह है कि विजुअल मीडिया को अभी तक स्वायत संस्था प्रेस परिषद के दायरे में भी नहीं लाया गया , जिस कारण पुलिस को मनमानी करने का अधिकार मिल गया है |  विजुअल मीडिया को आए 30 साल हो गए हैं , इन तीस सालों में सभी दलों की सरकारें आईं और गईं , लेकिन विजुअल मीडिया की शिकायतों पर सुनवाई के लिए कोई स्वायत ढांचा तैयार नहीं किया गया | अगर ऐसा किया गया होता तो महाराष्ट्र पुलिस की बजाए टीआरपी का केस उस स्वायत संस्था के पास जाता और पुलिस की मनमानी नहीं चलती | सरकार ने विजुअल मीडिया के खिलाफ शिकायतों को सुनने का अधिकार उन की अपनी बनाई संस्था न्यूज ब्रॉडकास्टिंग स्टैंडर्ड अथॉरिटी को दिया , जो टीआरपी के मामले में गुटबाजी का शिकार है और एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए पुलिस का इस्तेमाल कर रहे हैं | पुलिस सरकार के इशारे पर एक गुट को बदनाम करने के लिए दूसरे गुट के साथ सांठगाँठ कर रही है |

 

( लेखक आपातकाल में जेल रहे हैं और 1978 से सक्रिय पत्रकारिता में हैं )  

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