मीडिया की मर्यादा

Publsihed: 12.Nov.2011, 15:06

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जेएस वर्मा को लगता है कि न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू की अध्यक्षता वाली प्रेस परिषद भंग कर देनी चाहिए। यह मांग उन्होंने इसलिए की क्योंकि काटजू ने दृश्य मीडिया को प्रेस परिषद के अधीन लाने की मांग की है। न्यायमूर्ति वर्मा अब दृश्य मीडिया की उस नेशनल ब्राडकास्टिंग अथॉर्टी के अध्यक्ष हैं जो प्रेस परिषद से भी ज्यादा दंतविहीन है, जो नहीं चाहती कि मीडिया पर कोई नियंत्रण होना चाहिए, जो प्रेस परिषद के दायरे में भी नहीं आना चाहती... लोकपाल के दायरे में भी नहीं। ब्राडकास्टिंग एसोसिएशन की बनाई नेशनल ब्राडकास्टिंग अथारिटी को केंद्र सरकार के मापदंड भी मंजूर नहीं हैं, जो पिछले महीने मंत्रिमंडल ने तय किए हैं। जैसे, पांच बार संहिता तोड़ने वाले समाचार चैनल का लाइसेंस रद्द करने का प्रावधान। खुद को ‘प्रेस से अलग’ मीडिया बताने वाला दृश्य मीडिया कोई अंकुश नहीं चाहता। कोई निगरानी नहीं चाहता। बेलगाम कुछ भी करें। समाचार चैनल का लाइसेंस लेकर भूत-प्रेत, कामेडी सर्कस दिखाते रहें, तो कोई न पूछे। अश्लील दृश्य-नृत्य दिखाते रहें तो कोई न पूछे। चैनलों के मुखिया ‘पेड न्यूज’ का धंधा चलाते रहें, तो कोई न पूछे।

बिहार विधानसभा चुनाव से ठीक पहले कई बडे नेताओं ने कई दिन तक यात्राएं निकालीं। चैनलों में इसका सीधा प्रसारण तब क्या बिना पैसे के होता रहा? आम लोग तो यही समझते हैं कि वह खबर का हिस्सा था। लेकिन यह सच नहीं है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया नेताओं की काली कमाई का हिस्सेदार हो गया है। न्यूज चैनलों के विपणन (मार्केटिंग) प्रमुख, समाचार-प्रमुख भी बनाए जाने लगे हैं। वे कभी पत्रकार होने का लाभ उठाते हैं, कभी चैनल के विपणन प्रमुख बन कर फूलों के गुलदस्ते और महंगे उपहार लेकर मंत्रियों-मुख्यमंत्रियों के दरवाजे पहुंच जाते हैं।

क्या इसे नेशनल ब्राडकास्टिंग अथॉर्टी देख रही है? दृश्य मीडिया के ये गैर-पत्रकार अधिकारी मुख्यमंत्रियों के साथ बैठ कर सौदा तय करते हैं। यह हमने गोवा में एक स्टिंग ऑपरेशन के जरिए देख भी लिया। क्या चैनलों के समाचार प्रमुखों पर मुख्यमंत्रियों की खबर दिखाने और कई बार नहीं दिखाने के दिशा-निर्देश नहीं आते? 

एक समाचार चैनल ने अपने को आर्थिक तौर पर और समृद्ध बनाने के लिए एक चर्चित प्रशासनिक अधिकारी को कारोबार-प्रमुख (बिजनेस हेड) बना कर रखा, लेकिन धीरे-धीरे वे चैनल के समाचार-प्रमुख भी बन बैठे। क्योंकि उन्होंने चैनल को आर्थिक तौर पर और संपन्न बना दिया, इसलिए चैनल में क्या दिखाया जाए, क्या नहीं दिखाया जाए, यह तय करने का अधिकार भी उन्हें हो गया। पत्रकारों की नियुक्ति और बर्खास्तगी भी उनके अधिकार क्षेत्र में आ गई। इस संबंध में भ्रष्टाचार के कई मामले लंबित हैं। अदालतों में भी और जांच एजेंसियों में भी। उन पर पत्रिकाओं में खबरें और लेख छप चुके हैं।

ऐसा व्यक्ति जब पत्रकार का चोला पहन कर राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के साथ घूमेगा, तो जांच एजेंसियां क्या बिगाड़ लेंगी! क्या यह सब नेशनल ब्राडकास्टिंग अथॉर्टी और एसोसिएशन की नाक के नीचे नहीं हो रहा है? एसोसिएशन के ज्यादातर सदस्य पत्रकार हैं। लेकिन वे खुद स्वतंत्र नहीं हैं। यही वजह है कि वे मीडिया पर सरकारी या किसी स्वायत्त संस्था की निगरानी का जोर देकर विरोध कर रहे हैं। 

पत्रकारिता की सारी मर्यादाएं खत्म हो गई हैं। दृश्य मीडिया की ज्यादातर हस्तियां प्रिंट मीडिया से ही गई हैं। प्रिंट मीडिया में रहते हुए उनका कामकाज प्रेस परिषद की निगरानी के दायरे में था। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में जाकर उन्हें एतराज क्यों हो रहा है? क्या फर्क है प्रिंट और दृश्य मीडिया में? वे किसके दबाव में प्रेस परिषद या वैसी ही किसी संस्था के दायरे में आने का विरोध कर रहे हैं? क्यों नहीं आना चाहिए दृश्य मीडिया को प्रेस परिषद की जांच के दायरे में?

न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू प्रेस परिषद के नए अध्यक्ष हैं। उनके साक्षात्कार और ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में छपे लेख से बवाल मचा है। पर उनकी कही ज्यादातर बातें गौर करने लायक हैं। हंगामा बरपाने के बजाय प्रिंट और दृश्य मीडिया को आत्ममंथन करना चाहिए। कहीं स्वार्थी तत्त्व प्रेस की आजादी का बेजा फायदा तो नहीं उठा रहे हैं! व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठ कर पत्रकारों को सच्चाई का सामना करना चाहिए। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का पिछले एक दशक में स्वार्थी और भ्रष्ट तत्त्वों ने अपहरण कर लिया है। गैर-पत्रकार लोगों ने महंगे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को आर्थिक संकट से उबारने के नाम पर ‘पेड न्यूज’ की नई बीमारी लाकर मीडिया को प्रदूषित कर दिया है। यह बीमारी प्रिंट मीडिया में भी घुसपैठ कर चुकी है। चुनाव आयोग ने हाल ही में एक विधायक का चुनाव इसी आधार पर रद्द किया है।

चुनावों में पार्टी और उम्मीदवार विशेष के पक्ष में पूरे-पूरे पेज छप रहे थे, क्या किया प्रेस परिषद ने? क्या समाचार पत्र पंजीयक (रजिस्ट्रार ऑफ न्यूजपेपर) ने पेड न्यूज के लिए अखबार छापने की इजाजत दी थी? प्रिंट मीडिया में तो डांट-डपट, लानत-मलामत के बाद खबर के नीचे ‘एडवरटोरियल’ छपना शुरू हो गया है, लेकिन दृश्य मीडिया में तो पता भी नहीं चलता कि दिखाया जा रहा कार्यक्रम खबर का हिस्सा है या पैसे देकर दिखाई जा रही पेड न्यूज है। क्या सरकार को यह अंकुश लगाने का हक नहीं कि हर तरह की पेड न्यूज बंद होनी चाहिए। एडवरटोरियल के नाम पर प्रिंट मीडिया में भी अखबार के लाइसेंस का दुरुपयोग हो रहा है। यह प्रेस की आजादी में शामिल नहीं है।

प्रेस की आजादी का मतलब धंधा नहीं है। औद्योगिक घरानों, नेताओं, राजनीतिक दलों की आवाज बन कर न तो वह लोकतंत्र का चौथा स्तंभ हो सकता है न ही प्रेस की आजादी का हकदार। मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ तभी तक है, जब तक वह जनता की आवाज है। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ किसी से पैसे लेकर जनता को गुमराह करने का हथियार नहीं बनना चाहिए। गोवा के अखबार ‘हेराल्ड’ और उसी संस्थान के न्यूज चैनल ‘हेराल्ड केबल नेटवर्क’ में पैसे देकर इंटरव्यू छपने और दिखाने का स्टिंग आपरेशन सबके सामने आ चुका है।

चैनल ने पहले एक नेता से दो लाख रुपए लेकर उसका इंटरव्यू दिखाया था, फिर पचास हजार रुपए में चैनल पर और 86,400 रुपए में अखबार में दूसरा इंटरव्यू दिखाया और छापा गया। पैसे देकर इंटरव्यू छपवाने वाले ने खुद बातचीत को रिकार्ड किया। अब यह मामला प्रेस परिषद के हवाले है। चैनल और अखबार पेड न्यूज का खंडन करते हैं। खंडन करेंगे ही, क्योंकि पेड न्यूज का पैसा नकद लिया जाता है। चैनल जांच में दोषी पाया जाएगा तो उस पर कार्रवाई किस कानून के तहत होगी और कौन करेगा?

महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रहे अशोक चव्हाण ने कई अन्य मुख्यमंत्रियों की तरह अपने और अपनी पार्टी के लिए पेड न्यूज का सहारा लिया। दो-दो, तीन-तीन पेज इस तरह छपते थे, जैसे चुनाव की विशेष खबरें हों। चुनाव आयोग ने शिकायत मिलने पर जांच शुरू की, तो अशोक चव्हाण ने हाईकोर्ट से इस आधार पर राहत पा ली कि अखबार ने भी पेड न्यूज से इनकार किया है। काली कमाई में हिस्सेदार कोई भी अखबार-कंपनी पेड न्यूज पर हामी भरेगी भी कैसे? इनकार तो हेराल्ड और हेराल्ड केबल नेटवर्क भी कर रहा है। स्टिंग ऑपरेशन के आधार पर ग्यारह सांसदों की सदस्यता लेने वाला मीडिया अब खुद स्टिंग आपरेशन की आंच महसूस कर रहा है।

मीडिया को अपने गिरेबान में झांकना होगा, सांसदों की खरीद-फरोख्त उजागर करने के लिए हुए स्टिंग ऑपरेशन में शामिल होकर जब कोई मीडिया घराना वक्त आने पर खुद पर ब्लैकआउट लाद लेता है तो उसके लोकतंत्र का चौथा स्तंभ होने के बारे में सोचने का वक्त आ गया है। न्यायमूर्ति काटजू की इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ हुक्मरानों को जनता की रोजमर्रा की समस्याओं से रूबरू करवाना भूल गया है। वह फिल्म वालों की शाही जिंदगी, फैशन शो, पॉप म्यूजिक, डिस्को-डांस दिखा कर जनता को भरमा रहा है और सरकार का स्वार्थ सिद्ध कर रहा है।

पिछले एक साल में ग्यारह बार पेट्रोल की कीमतों में वृद्धि हुई। पिछले एक दशक में पहली बार किसी राजनेता ने महंगाई और इस कीमत वृद्धि के खिलाफ केंद्र सरकार को समर्थन वापसी की चेतावनी दी। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी जब यूपीए को चेता रही थीं तो ज्यादातर चैनल इस खबर से बेखबर थे। किसी चैनल पर सास-बहू चल रहा था, किसी पर संजीवनी आ रहा था, कहीं विज्ञापन चल रहा था तो कहीं मनोरंजन का विशेष कार्यक्रम। क्या यह लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है! पिछले दिनों सभी समाचार चैनलों पर फार्मूला-वन और लेडी गागा की धूम मची रही। क्या यह लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है?

प्रेस परिषद के नए अध्यक्ष काटजू ने मीडिया को आईना दिखाया है। मीडिया का काम सरकार की खामियों को उजागर करना है। जनता का साथ देना है। लेकिन फ्लैटों, प्लॉटों और जमीन के आबंटन में अशोक चव्हाण और येदियुरप्पा की कुर्सी लेने वाले मीडियाकर्मी क्या अपने गिरेबान में झांकेंगे? क्या कारण है कि वे लोकपाल के दायरे में आने से इनकार कर रहे हैं। प्रिंट और दृश्य मीडिया अगर लोकतंत्र का चौथा स्तंभ बने रहना चाहते हैं तो उन्हें लोकपाल के दायरे में आने की खुद पहल करनी चाहिए, ताकि पिछले एक दशक में अपने औद्योगिक घराने, अपने व्यापार, टैक्स चोरी और अपनी अन्य काली करतूतों को कानून की नजरों से बचाने के लिए मीडिया क्षेत्र में आए लोगों पर नकेल कसी जा सके। लेकिन उससे पहले न्यायमूर्ति काटजू के इस रुख का सम्मान करना चाहिए कि प्रिंट और विजुअल में कोई फर्क न करते हुए उन्हें प्रेस परिषद के दायरे में लाना चाहिए। 

अब यह और भी जरूरी हो गया है कि प्रेस परिषद को अधिकार दिए जाएं, जिनके तहत वह मीडिया में घुस आए संदिग्ध तत्त्वों को पहचान कर लाइसेंस रद्द करने की सिफारिश कर सके। आज राजनीतिज्ञों को लोग अच्छी नजर से नहीं देखते, जजों पर भी उंगली उठाई जा रही है। नौकरशाहों पर पहले से ही जनता का विश्वास नहीं। चौथे स्तंभ को अपनी गरिमा बचाए रखने की फिक्र खुद करनी चाहिए।

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