सीबीआई के तीन निदेशक एपी सिंह, रंजीत सिन्हा और आलोक वर्मा एक व्यक्ति की वजह से विवादों में घिरे। और वह व्यक्ति है मीट का कारोबारी मोईन कुरैशी । कुरैशी ने हर सीबीअई निदेशक को खरीदने में महारत का जलवा दिखाया है | जिस से सवाल बनता है कि क्या सीबीअई खुद भ्रष्टाचार की गंगोत्री बन गई है | क्या सीबीआई में डेपूटेशन पर आने की मारा मारी बहती गंगा में हाथ धोने के लिए होती है |
रंजीत सिन्हा के घर से जब्त की गई विजिटर्स डायरी में कुरैशी के 70 बार उनके घर जाने का ब्योरा मिला था । यहां यह उल्लेखनीय है कि कांग्रेस ने रणजीत सिन्हा की नियुक्ति तब की नेता विपक्ष सुषमा स्वराज के विरोध के बावजूद की थी। सीबीआई के दूसरे निदेशक एपी सिंह के परिजनों और मोईन कुरैशी के बीच ब्लैकबेरी मेसेंजर पर हुए संवाद का ब्योरा भी सामने आ चुका है।
ये तीनों निदेशक जिस विवाद में फंसे उसका राजनीति से कोई लेना देना नहीं है। सरकार से भी इसका कोई मतलब नहीं है। राफेल सौदे से तो बिल्कुल कुछ भी लेना देना नहीं है । सीबीआई राफेल की जांच नहीं कर रही थी, और न ही वह प्राइवेट शिकायत पर जांच शुरू कर सकती है। सीबीआई राज्य सरकार, केंद्र सरकार या हाईकोर्ट/सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर ही जांच शुरू करती है । अरुण शौरी, यशवंत सिन्हा और प्रशांत भूषण ने राफेल मामले में सीबीआई प्रमुख से राफेल सौदे की जांच करवाने की मांग जरूर की थी । पर सीबीआई उनके कहने पर जांच शुरू नहीं कर सकती । इसलिए राहुल गांधी और कांग्रेस का यह कहना कि आलोक वर्मा को इसलिए हटाया गया, क्योंकि वह राफेल की जांच शुरू करवाने वाले थे, जनता को भ्रमित करने की कोशिश है।
असल में राजनीतिक लोगों के हित साधते साधते सीबीआई के अधिकारी अपना हित साधने लगते हैं। तीनों निदेशकों के साथ समस्या इसी वजह से पैदा हुई। दुर्भाग्य की बात है कि चार बड़े अधिकारियों पर रिश्वत के आरोप लगे पर कार्रवाई किसी पर नहीं हुई है। तभी यह सवाल उठता है कि भ्रष्टाचार की उनकी जांच पर किसी को कैसे भरोसा बनेगा। अब जिस सना सतीश बाबू से रिश्वत लेने के मामले में आलोक वर्मा और कार्यकारी निदेशक राकेश अस्थाना दोनों फंसे हैं वह भी मोईन कुरैशी मामले से जुड़ा हुआ है।
मजेदार बात यह है कि निदेशक और कार्यकारी निदेशक बनाने में मोदी सरकार ने जानबूझ कर कोताही की। दोनों पर ही भ्रष्टाचार के आरोप थे । आलोक वर्मा ने राकेश अस्थाना के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवा दी, तो राकेश अस्थाना ने आलोक वर्मा के खिलाफ सीवीसी को शिकायत कर दी । मोदी सरकार की दोनों नियुक्तियां महागलती साबित हो रही हैं।
मोदी सरकार ने सीवीसी की सिफारिश पर आलोक वर्मा को छुट्टी पर भेज दिया, साथ ही राकेश अस्थाना को भी छुट्टी पर भेज दिया । लेकिन राकेश अस्थाना की जाँच करने वाले एक दर्जन अधिकारियों के तबादल ने सरकार की मंशा पर शक खड़ा किया है । सवाल यह भी खड़ा हुआ था कि सरकार बिना नियुक्ति कमेटी से सलाह किए निदेशक को हटा सकती है क्या । कांग्रेस का कहना था कि सरकार नहीं हटा सकती, सीवीसी की सिफारिश पर भी नहीं हटा सकती। लेकिन आज सुप्रीम कोर्ट ने कांग्रेस की इस थ्योरी को नकार दिया है। कोर्ट ने सीवीसी को कहा है कि जिन आरोपो पर उसने आलोक वर्मा को हटाने की सिफारिश की है, उस की जांच 15 दिन में की जाए। लेकिन सुप्रीमकोर्ट ने सीवीसी को फ्रीहैंड नहीं दिया है, यानि सीवीसी की निष्पक्षता भी शक के दायरे में है | सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज सीवीसी जाँच की मॉनिटरिंग करेंगे । आलोक वर्मा को कोर्ट से राहत नहीं मिली। अब सब कुछ सीवीसी की जांच रिपोर्ट पर निर्भर करेगा ।
ऐसा नहीं है कि सीबीआई की मौजूदा दुर्दशा के लिए सिर्फ कुरैशी केस ही जिम्मेदार है। कुरैशी विवाद के अलावा जो राजनीतिक पहलू है उसकी शुरुआत 2016 में हुई, जब सरकार ने गुजरात काडर के आईपीएस अधिकारी राकेश अस्थाना को सीबीआई में लाने का फैसला किया । उस समय अनिल सिंह कार्यकारी निदेशक थे । वह रिटायर होने वाले थे और उन की जगह पर नंबर दो अधिकारी रूपक दत्ता को कार्यकारी निदेशक बनना था । लेकिन अनिल सिन्हा के रिटायर होने से दो दिन पहले अस्थाना को गुजरात से ला कर कार्यकारी निदेशक बनाया गया। जबकि रूपक दत्ता का तबादला करके गृह मंत्रालय में भेज दिया । सरकार का इरादा राकेश अस्थाना को सीबीआई निदेशक बनाने का था, लेकिन निदेशक की नियुक्ति समिति में विपक्ष का नेता भी होता है, कांग्रेस ने अस्थाना की नियुक्ति का विरोध करने का फैसला किया, जिस पर एक फऱवरी 2017 को आलोक वर्मा निदेशक नियुक्त किए गए। आज जो कांग्रेस वर्मा को नायक बना कर घूम रही है, उस ने वर्मा की नियुक्ति का भी विरोध किया था | लोकसभा में बड़े दल के नेता के नाते मल्लिकार्जुन खड्गे उस कमेटी के सदस्य थे, लेकिन वह बैठक में ही नहीं गए, जिस में वर्मा की नियुक्ति हुई थी |
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