एक साथ चुनाव में लोकतंत्र सीमित हो जाएगा 

Publsihed: 05.Oct.2017, 22:37

अजय सेतिया / एक साथ चुनाव अटल बिहारी वाजपेयी का आईडिया था | इस आईडिया को भैरोंसिंह शेखावत ने आगे बढाया था | नरेंद्र मोदी ने जब 2016 में यह मुद्दा उठाया था | तो हुआनसांग की खोज जैसी कोई नई खोज नहीं थी | गुरूवार को चुनाव आयोग ने एक साथ चुनाव सहमति जता दी | तो इस का मतलब यह नहीं कि एक साथ चुनाव हो सकते हैं | न तो चुनाव आयोग को किसी विधानसभा का कार्यकाल घटाने का हक़ है , न केंद्र सरकार को, न संसद को | विधानसभाएं खुद चाहें , तभी किसी विधानसभा का कार्यकाल घट सकता है | मोरारजी देसाई ने कई विधान सभाएं भंग कर दी थी | इंदिरा गांधी ने भी कई विधानसभाएं भंग कर दी थी | बाबरी ढांचा टूटने के बाद नर सिंह राव ने भी भाजपा सरकारों वाली विधानसभाएं भंग कर दी थी | पर इस बीच भारत की नदियों में बहुत पानी बह चुका है | सुप्रीमकोर्ट कह चुकी है कि केंद्र को विधानसभा भंग करने का हक़ नहीं | सुप्रीमकोर्ट भंग हुई विधानसभा को भी बहाल कर चुकी है | इस लिए वाजपेयी ने  एक साथ चुनावों का मुद्दा उठा कर राजनीतिक दलों पर छोड़ दिया था | उनने राजनीतिक दलों में आम सहमती की बात कही थी | वाजपेयी देश की लोकतंत्र प्रणाली में रचे बसे पीएम थे | वह एक साथ चुनावों की पेचीदगियों को समझ गए थे | एक साथ चुनावों का आइडिया तो आईडियल है, पर वह  जानते थे कि  लोकतंत्र से समझौता करना पडेगा | भैरोसिंह शेखावत  ने बाकायदा दलों से आफ रिकार्ड बातचीत शुरू की थी | पर न यह संभव होना था,. न हुआ | अब नरेंद्र मोदी उसी आईडिया को लेकर आगे बढना चाहते हैं | अपन एक साथ चुनावों के हिमायती हैं | पर अपन को सफलता की रत्ती भर उम्मींद नहीं | कांग्रेस के पास इंदिरा गांधी जैसा नेता होता , तो कांग्रेस फ़ौरन मंजूर कर लेती | इंदिरा गांधी एक साथ चुनावों का आईडिया ले कर आती तो भाजपा कभी कबूल न करती | क्यों कि विपक्ष के पास इंदिरा गांधी के  कद का नेता नहीं था | जैसे आज विपक्ष के पास नरेंद्र मोदी के कद का नेता नहीं | एक साथ चुनावों का आईडिया आईडियल है | पर अपना मौजूदा संविधान इजाजत नहीं देता | संविधान में कई पेंच हैं | पहला पेंच तो यह है कि अपनी लोकसभा और विधानसभाएं बहुमत के आधार पर चलती हैं | बहुमत न हो तो सरकारें गिर जाती हैं, विधानसभाएं भंग हो जाती हैं | तब मध्यावधि चुनाव करवाना पड़ता है | जब सरकार गिरने पर मध्यावधि चुनाव करवाना पडेगा | तो सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कैसे हो सकते हैं | यानि मध्यावधि चुनाव की संभावना खत्म करने के लिए सदनों की टर्म फिक्स करनी पड़ेगी | उस फिक्स टर्म में किसी को बहुमत नहीं होगा तो सरकार कैसे बनेगी | विधानसभा तो चलो सस्पैंड कर के काम चलाऊ सरकार बनी रहेगी | या टर्म खत्म होने तक गवर्नर राज भी रह सकता है | पर लोकसभा में बहुमत न हुआ तो क्या टर्म खत्म होने तक देश में राष्ट्रपति राज होगा | यानि नया संविधान लिखना पडेगा | जिस में लोकतंत्र के अर्थ बदल जाएंगे | लोकतंत्र सीमित हो जाएगा | क्या इसे लोकतंत्र कहेंगे | यह लोकतंत्र की मूल भावना से खिलवाड़ होगा | अच्छे भले लोकतंत्र को लिमिटेड लोकतंत्र में बदलना कहाँ की अकलमंदी होगी | मौजूदा लोकतंत्र को संसद के दो तिहाई बहुमत के साथ भी नहीं बदला जा सकता | दो-तिहाई विधानसभाओं का भी दो-तिहाई बहुमत चाहिए | पहली बात तो यह कि नरेंद्र मोदी इतना समर्थन नहीं जुटा सकते | नरेंद्र मोदी अगर पेचीदगियों की गहराई में गए होंगे | तो वह समझते होंगे कि होना जाना कुछ नहीं | पर यह लोकलुभावन मुद्दा उछाल कर विपक्ष को कटघरे में खड़ा कर देंगे | इस लिए आने वाले सवा-डेढ़ साल तक यह मुद्दा उछलेगा | मोदी का एकसाथ चुनाव का जुमला विपक्ष को बदनाम करने का नया हथियार बनेगा | विपक्ष विरोध में तर्क देता घूमता फिरेगा | अटल बिहारी वाजपेयी देश के लोकतंत्र में रचे बसे थे | वह लोकतंत्र को सीमित करने के हिमायती कभी नहीं हो सकते थे | इस लिए उन्होंने बहस शुरू कर के बीच में छोड़ दिया था | पर मोदी ऐसा नहीं करेंगे | वह पेचीदगियों के सवालों का जवाब भी नहीं देंगे | जैसे किसी का बहुमत नहीं होगा, तो लोकसभा,विधानसभा भंग होगी या नहीं | भंग नहीं होगी , तो सरकार कौन चलाएगा  ? मध्यावधि चुनाव होगा, तो एक साथ चुनावों का क्या होगा ? क्या अगले चुनाव एक साथ करवाने के लिए मध्यावधि चुनावों में चुनी गए सदन का कार्यकाल बाकी टर्म का होगा | मां लो, किसी विधानसभा का कार्यकाल एक साल पडा हो | किसी का बहुमत न रहे , तो क्या एक साल के लिए विधानसभा चुनी जाएगी  ? क्या बहुमत बनाए रखने के लिए राजनीतिक दल खरीद-फरोख्त नहीं करेंगे ? निर्दलीय विधायकों की खरीद-फरोख्त की मंडियां नहीं लगेंगी ? सांसद या विधायक इस्तीफा देंगे , तो उप चुनाव होगा या नहीं  ? सांसद या विधायक मर जाएंगे , तो उप चुनाव होगा या नहीं ?  एक साथ चुनाव तो हो सकता है | पर लोकतंत्र के साथ गम्भीर समझौते करने होंगे | जो रोज-रोज के चुनावों से बेहतर तो कतई नहीं होंगें | 

 

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