भारत लोकतांत्रिक मूल्यों का सिरमोर ?

Publsihed: 30.Mar.2021, 18:34

अजय सेतिया / म्यांमार में सैन्‍य तख्‍तापलट के बाद सेना का खूनी खेल जारी है | अपने पडौसी देश पाकिस्तान में भी चुनी हुई सरकारों का सेना की ओर से तख्ता पलट होता रहा है | बांग्लादेश का निर्माण ही सैन्य ज्यादतियों के खिलाफ हुआ है | अपने एक और पडौसी देश चीन में लोकतंत्र है ही नहीं , वह लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई नेपाल सरकार हो या म्यांमार सरकार , उस में दखल दे कर लोकतांत्रिक सरकारों के खिलाफ साजिश रचता रहा है | इस पूरे खित्ते में आपातकाल के 19 महीनें छोड़ दें तो भारत का लोकतंत्र एशिया में सफलतम मिसाल है | भारत अब इतना सशक्त लोकतंत्र बन चुका है कि अमेरिका के लोकतंत्र से तुलना होती है | हालांकि 2014 के बाद से भारत की चुनी हुई राष्ट्रीय सरकार के खिलाफ भी चीन समर्थक भारतीय वामपंथियों ने लोकतंत्र को कटघरे में खड़ा करने वाले सवाल किए हैं | चुनाव आयोग की निष्पक्षता और ईवीएम पर ठीक उसी तरह सवाल उठाए गए थे , जैसे म्यांमार में सेना ने उठाए हैं | अब इस तरह की खबरें भी सामने आ रही हैं कि अंग सांग सू के भारत से बेहतर सम्बन्धों के कारण ही चीन ने म्यांमार की सेना को भडका कर तख्ता पलट करवाया है |

अब सवाल पैदा होता है कि दुनिया के दो बेहतरीन लोकतंत्रिक देशों में शुमार भारत की म्यांमार में चुनी हुई सरकार के तख्ता पलट पर क्या प्रतिक्रिया होनी चाहिए थी | क्या इतना पर्याप्त था कि म्यांमार के हालात 'बेहद तकलीफ़देह' हैं और वहां जल्द से जल्द लोकतंत्र बहाल होना चाहिए | दूसरी तरफ चीन ने अपनी फौरी प्रतिक्रिया में मिलट्री शासन का पक्ष लेते हुए कहा कि वहां मिलिट्री और नागरिकों के बीच समन्वय होना चाहिए | एक तरह से चीन ने लोकतांत्रिक सरकार के खिलाफ स्टैंड लेते हुए तख्ता पलट का समर्थन किया | म्यांमार में पांच सालों में जो थोड़ा बहुत लोकतंत्र आया था, उस पर फिर सेना के काबिज़ होने पर भारत और चीन का स्टैंड कुछ खास इशारे देता है | भारत के लिए यह ज्यादा चिंता का विषय होना चाहिए था , क्योंकि सेना के भय से म्‍यांमार के लोगों का भारत के मिजोरम में पलायन हो रहा है ,  जो आने वाले समय में भारत के लिए नई समस्या खडी कर सकता है | अमेरिका समेत यूरोपीय देश म्‍यांमार की सैन्‍य हुकूमत पर लोकतंत्र की बहाली के लिए लगातार दबाव बनाए हुए हैं , अमेरिका ने तो म्यांमार की सैन्य सरकार के खिलाफ प्रतिबन्ध लगा दिए हैं | लेकिन भारत ने चुप्पी साध रखी है |  

चीन का इस बात से मतलब नहीं है कि वहां किसकी सरकार है | लेकिन उसे इस से मतलब है कि सरकार का स्‍वरूप क्या है , अगर वह लोकतांत्रिक सरकार है तो स्वाभाविक है कि उस के भारत के साथ बेहतर रिश्ते होंगे | उस के लिए बेहतर सैन्य शासन ही है , जिसके साथ उस के 1962 से 2015 तक बेहतरीन रिश्ते रहे | इतना ही नहीं उसने अपने महत्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के तहत म्यांमार के साथ भी इकोनॉमिक कॉरिडोर बनाया है | बड़े प्रोजेक्टों की आड़ में चीन भविष्य में म्यांमार के सैन्य ठिकानों का इस्तेमाल करने का इरादा रखता है | चीन का सरोकार सिर्फ म्‍यांमार में अपने हितों का पोषण करना है | यही कारण रहा है कि चीन ने संयुक्‍त राष्‍ट्र की उस अपील पर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी , जिस में लोकतंत्र बहाली की बात कही गई थी | अलबत्ता म्‍यांमार में सैन्‍य शासन के बहाने चीन ने लोकतांत्रिक पद्धति पर ही तंज कसा है |

सवाल यह है कि अगर चीन अपने हितों की रक्षा के लिए किसी भी हद तक जा सकता है तो भारत की प्रतिक्रिया लुंज पुंज क्यों है | भारत को अगर विश्व में एक ताकत के रूप में उभरना है तो उसे लोकतंत्र और लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए आवाज़ उठानी पड़ेगी | वरना जवाहर लाल नेहरु की गुटनिरपेक्ष नीति और मोदी शासन में कोई फर्क नहीं रह जाएगा | भारत अगर नेहरु की बनाई इस नीति पर ही कायम रहेगा कि वह किसी देश के आंतरिक मामलों में हस्‍तक्षेप नहीं करेगा, जब तक कि उस घटना का प्रभाव उसके आंतरिक मामलों पर नहीं पड़े, तो भारत लोकतांत्रिक ताकतों का आदर्श देश नहीं बन सकता | लेकिन यहाँ यह भी याद रखना चाहिए कि म्यांमार से भारत में पलायन वैसा ही पलायन हो रहा है , जैसा 1971 में आज के बांग्लादेश से हुआ था , भले ही संख्या कम हो | अगर तब इंदिरा गांधी ने सैन्य दखल दिया था , तो मोदी क्या अमेरिका और यूरोप की तरह राजनीतिक दबाव भी नहीं बना सकते |

 

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