दिल्ली के दंगे न होते अगर ....

Publsihed: 07.Oct.2020, 19:58

अजय सेतिया / अदालतों की लापरवाहियां समय समय पर उजागर होती रही हैं | अयोध्या जैसे संवेदनशील मामलों का समय पर फैसला नहीं आने के कारण के अपन 1990 में कार सेवको पर गोली चलाए जाने , 1992 में बाबरी ढांचा तोड़े जाने और 1993 में बम धमाकों का देश व्यापी आतंकवाद देख चुके हैं | अब इसी तरह के दो और मामले सामने आए हैं , एक है शाहीन बाग़ के धरने का मामला , जिसे सुप्रीमकोर्ट ने हटाने का समय पर फैसला नहीं दिया था और अपन ने दिल्ली में दंगे होते देखे , जिस में 58 लोग मारे गए |

दूसरा मामला पालघर में दो साधुओं और एक कार चालक की हत्या का है , हिन्दुओं में आक्रोश बढ़ता जा रहा है और सुप्रीमकोर्ट तारीख पर तारीख खेल रही है | बुधवार को भी सुनवाई थी , जिसे 15 नवम्बर तक के लिए टाल दिया गया है | महाराष्ट्र सरकार नहीं चाहती कि सुप्रीमकोर्ट सीबीआई या न्यायिक जांच के आदेश दे , इसलिए उस ने बड़ी तेजी से पुलिस कर्मियों पर कार्रवाई कर के उसे अपने हलफनामे में जोड़ा है | कोर्ट अभी फैसले के मूड में नहीं दिखती अब उस ने याचिकाकर्ता के हलफनामे पर महाराष्ट्र सरकार से जवाब माँगा है | अदालतों का खेल इस तरह चलता रहता है और उधर जनाक्रोश बढ़ता रहता है , जिस कारण साम्प्रदायिक दंगे हो जाते हैं , लेकिन अदालतें कभी उस की जिम्मेदारी खुद पर नहीं लेती |

अब बुधवार को शाहीन बाग़ के धरने के खिलाफ फैसला देते हुए भी सुप्रीमकोर्ट ने धरने से उपजे हालात और दंगे की जिम्मेदारी से हाथ धो लिए | याचिका तब फरवरी में दाखिल की गई थी जब धरना चल रहा था | सुप्रीमकोर्ट ने जो अब फैसले में कहा है , अगर वह फरवरी में ही दो टूक कह कर पुलिस को सडक से धरना हटाने के आदेश दे देती , तो दंगों को टाला जा सकता था | तब तो पहले सरकार और पुलिस से धरने पर बैठे लोगो से बातचीत करने का आदेश दिया और फिर खुद ही संजय हेगड़े, साधना रामचंद्रन और वजाहत हबीबुल्लाह को मध्यस्थ नियुक्त कर दिया था , तीनों धरना देने वालों के समर्थक थे , फिर भी उन्हें धरना खत्म करने के लिए राजी नहीं सके , अलबत्ता धरना जारी रखने के लिए उकसाते देखे गए थे |

सुप्रीमकोर्ट कह तो तब भी यही रही थी कि आवागमन को अनिश्चित काल के लिए रोका नहीं जा सकता , लेकिन सडक खाली करवाने के लिए पुलिस को आदेश नहीं दिया | अब अपने फैसले में कहा है कि शाहीन बाग में मध्यस्थता के प्रयास सफल नहीं होने का हमें कोई पछतावा नहीं है | करोड़ों रुपयों की सम्पत्ति के नुक्सान और 58 लोगों की जान जाने के बाद भी सुप्रीमकोर्ट का कहना है उसे कोई पछतावा नहीं है | कोर्ट ने तब इसे कतई गम्भीरता से नहीं लिया , जब सौ दिन बाद कोरोनावायारस के कारण 144 लगा कर धरना उखाड़ दिया गया तो अपनी सुनवाई में सुप्रीमकोर्ट ने याचिकाकर्ता अमित साहनी और नंदकिशोर गर्ग के वकील शशांक देव सुधी को यह कहते हुए याचिका वापस लेने के लिए राजी करने की कोशिश की थी कि धरना तो अब उठ चुका है | लेकिन याचिकाकर्ता ने याचिका वापस लेने से इनकार कर दिया तो अब कोर्ट को फैसला देना पड़ा |  

फैसले में बाकी एक शब्द भी नया नहीं है , वही है जो 17 फरवरी को आब्जर्वेशन के समय कहा था कि विरोध का अधिकार है , लेकिन विरोध जताने के लिए पब्लिक प्लेस या रास्ते को ब्लॉक नहीं किया जा सकता | कोर्ट में याचिका के कारण पुलिस उस समय कुछ नहीं कर सकती थी , उसे वही करना था , जो कोर्ट आदेश देती और कोर्ट ने बातचीत कर धरने की जगह बदलने के लिए राजी करने के आदेश दिए थे, धरना हटाने के आदेश नहीं दिए थे | अब सुप्रीमकोर्ट ने कहा है कि विरोध प्रदर्शन तय जगहों पर ही होना चाहिए ,सार्वजनिक जगहों पर प्रदर्शन लोगों के अधिकारों का हनन है , कानून में इसकी इजाजत नहीं है, इसलिए अधिकारियों को इस तरह के अवरोध को हटाना चाहिए | खैर इस फैसले से अब एक दिशा निर्देश तो तय हो गए हैं क्योंकि सुप्रीमकोर्ट ने अपने आदेश में कहा है कि संविधान विरोध करने का अधिकार देता है , लेकिन विरोध तय जगहों पर ही होना चाहिए , ऐसी जगहों पर नहीं जहां आम आदमी का जीवन प्रभावित होता हो |

 

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