एमएसपी को कानूनी दर्जा जरूरी

Publsihed: 01.Dec.2021, 19:02

अजय सेतिया / मोदी सरकार ने जिस तेजी के साथ कृषि बिल पास करवाए थे , उसी तेजी से संसद से बिल रद्द भी करवा लिए | लेकिन सरकार को नाकों चने चबवाने के बाद भी किसान आन्दोलन खत्म होने का नाम नही ले रहा | अब उन की मांग न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी दर्जा दिलवाने और आन्दोलन के दौरान मारे गए 700 के करीब किसानों को केंद्र सरकार से मुआवजा दिलाने की है | मोदी सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बातचीत का न्योता भेज कर किसानों को सकारात्मक संकेत दिए हैं | आने वाले समय में सरकार इस मुद्दे पर भी पहल कर सकती है | क्योंकि आरएसएस का एक बड़ा वर्ग भी न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी दर्जा देने का समर्थक है | आरएसएस के विचारक माने जाने वाले गोबिन्दाचार्य ने जहां कृषि बिलों में खामियां बताई थीं , वही यह भी कहा कि न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी दर्जा देने में कोई हर्ज नहीं | इस तरह उन्होंने एमएसपी को कानूनी दर्जा देने संबधी किसानों की मांग को उचित बता दिया है | हालांकि गोबिन्दाचार्य अभी संघ या भाजपा के साथ सीधे तौर पर नहीं जुड़े , लेकिन उन की राय को संघ की राय ही माना जाता है , क्योंकि वह अप्रत्यक्ष तौर पर संघ के कई संगठनों से जुडे हैं | और उन का संघ परिवार से विचार विमर्श बना रहता है |

सवाल यह है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य को  क्यों कानूनी दर्जा दिया जाना चाहिए , और इस के क्या नुक्सान हो सकते हैं | केंद्र सरकार वर्तमान में 23 फसलों को एमएसपी देती है |  इनमें 7 अनाज (धान, गेहूं, मक्का, बाजरा, ज्वार, रागी और जौ), 5 दालें (चना, अरहर, मूंग, उड़द और मसूर), 7 तिलहन (सरसों, मूंगफली, सोयाबीन, सूरजमुखी और तिल) शामिल हैं | इसके अलावा इसमें 4 व्यावसायिक फसलें (गन्ना, कपास, खोपरा और कच्चा जूट) भी शामिल है |  हालांकि यह काफी हद तक कागज़ पर ही है, क्योंकि भारत के अधिकांश हिस्सों में उगाई जाने वाली अधिकांश फसलों में से किसानों को प्राप्त होने वाली कीमतें आधिकारिक तौर पर घोषित एमएसपी से काफी कम होती है | सरकारी खरीद संगठन एफसीआई , नेफेड और भारतीय कपास निगम के अफसर बिना रिश्वत लिए फसल खरीदते नहीं , सरकारी आंकड़ों के अनुसार पिछले साल भारत में हुए चावल के उत्पादन का लगभग 50 प्रतिशत हिस्सा एमएसपी पर ख़रीदा गया, जबकि गेहूं 40 प्रतिशत और कपास सिर्फ 25 प्रतिशत ही खरीदी गई |

भ्रष्ट अफसर आढतियों के माध्यम से बड़े किसानों से सौदा कर लेते हैं और छोटे किसानों के पास इस के सिवा विकल्प नहीं होता कि वे आढतियों को औने पौने भाव में अपनी फसल बेच दें | व्यापारी उन की मजबूरी की फायदा उठा कर उन के खेतों से तुरंत नगदी दे कर औने पौने भाव में फसल उठा लेते हैं | अगर न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी दर्जा मिल जाएगा तो सरकारी कर्मचारी , आढती , व्यापारी , कारपोरेट घराने किसानों को लूट नहीं सकेंगे |सवाल पैदा होता है कि आखिर सरकार किसानों की लूट की छूट क्यों दे रही है | जबकि गन्ने को लेकर यह क़ानून 1966 से लागू है | केंद्र सरकार और कुछ राज्य सरकारों की ओर से तय किए गए मूल्य के अनुसार चीनी मिलों को गन्ना किसानों को उचित और लाभाकारी मूल्य देना पड़ता है | आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत जारी गन्ना (नियंत्रण) आदेश 1966 गन्ना खरीद के 14 दिनों के भीतर कानूनी रूप से गारंटी मूल्य का भुगतान करने के लिए बाध्य करता है |

अब इस का दूसरा पहलू भी जान ले , दूसरा पहलू यह है कि अगर अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में अनाज, दलहन  और तिलहन की कीमतें एमएसपी से इतनी कम हुई कि आयात के बाद भी एमएसपी से सस्ती पड़ी तो व्यापारी भारतीय किसानों से एमएसपी पर खरीद करने की बजाए आयात करेगा और किसानों का उत्पादन भारत सरकार को ही खरीदना पड़ेगा जो भारतीय अर्थ व्यवस्था को चौपट कर देगा | जैसे पिछले साल ही गेंहू की अन्तर्राष्ट्रीय कीमतें एमएसपी से काफी कम थीं | अभी तो मिश्र , इंडोनेशिया , टर्की और फिलिपिन्स भारत से गेंहू खरीदता है , भारत ने इन देशों को पिछले साल 549 मिलियन डालर का गेहूं निर्यात किया | लेकिन उन के पास भी अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार का विकल्प खुला है |  हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि रूस , अमेरिका , कनाडा और आस्ट्रेलिया गेहूं के सब से बड़े निर्यातक देश हैं | भ्रष्ट ब्यूरोक्रेसी मोदी सरकार को यही भय दिखा कर न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी दर्जा देने से रोकने का प्रयास कर रही है | लेकिन सरकार खाद्द्यान के आयात पर रोक लगा कर भारतीय किसानों को लाभ पहुंचा सकता है और भारतीय अर्थ व्यवस्था को भी नियंत्रित रख सकती है |

 

 

 

 

 

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