सिर्फ तकनीकी आधार पर खड़ी सरकार

Publsihed: 27.Oct.2008, 05:39

सरकार शीत सत्र के समय मानसून सत्र को घसीट रही है।  वह 21 जुलाई से शुरू हुए सत्र को लंबा खींच रही है ताकि अविश्वास प्रस्ताव न आए। सत्र जितना लंबा होगा सरकार की उम्र भी उतनी ही लंबी होगी।

इमरजेंसी में इंदिरा गांधी ने संसद का मनमाने ढंग से इस्तेमाल किया था। उन्होंने लोकसभा की अवधि पांच साल से बढ़ाकर छह साल कर दी थी। संसद का उसी तरह मनमाने ढंग से दुरुपयोग अब फिर शुरू हो गया है। लोकसभा में बहुमत का बेजा फायदा उठाने से लोकतंत्र का कितना नुकसान होता है, शायद कांग्रेस को इसका आभास नहीं है।

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सारी जिंदगी ब्यूरोक्रेट रहे हैं। वह तो अपनी रिटायरमेंट के बाद भी राजनीति में नहीं आते, अगर नरसिंह राव उनकी आर्थिक विशेषज्ञता का लाभ उठाने के लिए उन्हें अपना वित्तमंत्री नहीं बनाते। नरसिंह राव आर्थिक उदारीकरण लागू करना चाहते थे और उन्हें ऐसे व्यक्ति की जरूरत थी जो जवाहर लाल नेहरू की समाजवादी अर्थव्यवस्था से जरा भी प्रभावित न हो। स्वाभाविक है कि ऐसा व्यक्ति कोई गैर कांग्रेसी ही होता, सो उन्होंने अर्थशास्त्रियों पर निगाह दौड़ाई। मनमोहन सिंह के रूप में उन्हें ऐसा शख्स मिल गया, जो अमेरिका के काफी नजदीक था और अमेरिका जैसा आर्थिक उदारीकरण को लागू कर सकता था। मनमोहन सिंह पहले तो अमेरिका के नजदीक थे वित्तमंत्री काल में उनकी नजदीकी में और विस्तार हुआ। उसकी झलक हमने पिछले चार सालों में देखी है, जिसमें उन्होंने अमेरिकी अर्थव्यवस्था को सुधारने का सौदा किया। ऐसा करने के लिए उन्हें भारत की संसद को धोखा देना पड़ा, तो उन्होंने कतई परवाह नहीं की। उन्हें संसद में एक नहीं, कई बार झूठ बोलना पड़ा, तो उन्होंने कोई परवाह नहीं की। मनमोहन सिंह देश के पहले प्रधानमंत्री हैं, जिनकी रगों में लोकतंत्र का खून नहीं दौड़ता। अलबत्ता एक नौकरशाह की तरह अपने आका का हुक्म बजाने वाला खून दौड़ता है।

मनमोहन सिंह को लोकतंत्र और संसद की मर्यादा की फिक्र होती तो वह पिछले हफ्ते संसद सत्र के दौरान विदेश यात्रा पर नहीं जाते। या संसद का सत्र उन तरीखों में नहीं रखा जाता, जिस समय उन्हें विदेश दौरे पर जाना था। आठ दिन चली संसद की बैठकों में से एक दिन दो सांसदों को श्रध्दांजलि देकर लोकसभा उठ गई, तो दो दिन साप्ताहिक अवकाश में बीत गए। संसद सिर्फ पांच दिन चली और इनमें से चार दिन प्रधानमंत्री गैर हाजिर थे। उन्होंने 22 जुलाई को लोकसभा में विश्वासमत लेते समय सदन से वायदा किया था कि आईएईए से करार और एनएसजी से छूट मिल जाने के बाद वह संसद के सामने आएंगे और उसके बाद अमेरिका से एटमी करार किया जाएगा। मनमोहन सिंह ने जानबूझ कर संसद की अवहेलना करके प्रणव मुखर्जी को करार पर दस्तखत करने भेज दिया। वह चाहते तो संसद की बैठक बुला सकते थे, क्योंकि 22 जुलाई को बैठक स्थगित करते समय सत्रावसान नहीं किया गया था। अल्पकाल के नोटिस पर संसद की बैठक बुलाई जा सकती थी, लेकिन प्रधानमंत्री को पता था कि उन्हें संसद का सामना करने में मुश्किल पेश आएगी, इसलिए उन्होंने बैठक नहीं बुलाई। प्रधानमंत्री को मालूम था कि उन्होंने संसद को धोखे में रखकर सदन का विश्वास हासिल किया है, इसलिए उनके खिलाफ विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव आएगा। इसके बावजूद वह संसद की बैठकों के दौरान विदेश रवाना हो गए, जिस दिन उनके खिलाफ विशेषाधिकार हनन का नोटिस दिया गया, वह उस दिन संसद में मौजूद थे। उन्हें प्रणव मुखर्जी को सामने करने के बजाए खुद संसद में सफाई देनी चाहिए थी। लोकतंत्र में आस्था रखने वाला कोई प्रधानमंत्री संसद से इस तरह नहीं भागता। मनमोहन सिंह को लोकसभा स्पीकर सोमनाथ चटर्जी ने तकनीकी आधार पर विशेषाधिकार हनन से मुक्त कर दिया है, लेकिन नैतिक आधार पर वह मुक्त नहीं हुए हैं।

विश्वास मत हासिल करने के लिए बुलाए गए दो दिवसीय सत्र का सत्रावसान नहीं करना भी लोकतंत्र और संसद के प्रति अनास्था का परिचायक है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस बात से वाकिफ हैं कि उनका बहुमत जोड़-तोड़ और खरीद-फरोख्त से हासिल किया हुआ है, जो ताश के पत्तों की तरह कभी भी गिर सकता है। इसलिए वह संसद के तकनीकी नुक्तों का फायदा उठाकर अपनी सरकार को ज्यादा से ज्यादा घसीटने की कोशिश कर रहे हैं। अगर विश्वासमत के लिए बुलाई गई 21-22 जुलाई की दो दिवसीय बैठक के बाद सत्रावसान कर दिया जाता तो 17 अक्टूबर से 24 अक्टूबर तक चली संसद की बैठक वास्तव में मानसून सत्र होता। संसदीय नियमों के मुताबिक किसी एक सत्र में विश्वास मत हासिल हो जाने के बाद अविश्वास मत नहीं आ सकता। इसलिए दो दिवसीय सत्र ही मानसून सत्र बना दिया गया। मानसून सत्र हमेशा जुलाई के तीसरे हफ्ते से ही शुरू होता था इसलिए 22 जुलाई के बाद सत्र को जारी रखकर नवंबर में शीत सत्र बुलाया जाना चाहिए था। लेकिन बहुमत साबित करने के लिए दो दिन की बैठक बुलाकर संसद को अनिश्चित काल के लिए स्थगित करना तकनीकी आधार पर सरकार को बनाए रखने की रणनीति का हिस्सा साबित हुआ। पूरे तीन महीने के अंतराल के बाद 17 अक्टूबर को फिर संसद बुलाई गई। सरकार को मालूम था कि छह विधानसभाओं के चुनाव अक्टूबर-नवंबर में होंगे और चुनावों का ऐलान होने के बाद सत्र स्थगित करना पड़ेगा। इसलिए सरकार ने जानबूझ कर तीन महीने तक सत्र को टाला और ऐन चुनाव के मौके पर 17 अक्टूबर से 21 नवंबर तक संसद की बैठकों का ऐलान कर दिया।

चुनाव प्रक्रिया के लिए अगर 24 अक्टूबर से आगे संसद को चलाना मुश्किल हो गया था तो मानसून सत्र का सत्रावसान किया जाना चाहिए था। मानसून सत्र वैसे भी अगस्त के तीसरे हफ्ते तक ही चलता रहा है। सरकार ने अब भी जानबूझकर सत्रावसान नहीं किया है क्योंकि वह तकनीकी नुक्ते का फायदा उठाकर संसद के कटघरे में खड़ा होने से बचे रहना चाहती है। इस तरह यूपीए को बिना जवाबदेही के सरकार में बने रहने का मौका मिल रहा है। अगर हम पिछले 56 साल का संसदीय इतिहास देखें तो पाएंगे कि मानसून सत्र जुलाई-अगस्त में पांच हफ्ते तक ही चलता रहा है, जबकि नवंबर के तीसरे हफ्ते में शीत सत्र की शुरूआत होती रही है। पिछले साल सात दिसंबर को शीत सत्र का सत्रावसान हो गया था जबकि अब सरकार ने मानसून सत्र को ही 10 दिसंबर से आगे चालू रखने का फैसला किया है। इस तथ्य से साफ है कि सरकार संसद के साथ किस तरह खिलवाड़ कर रही है। परंपरा रही है कि संसद के बेवक्त सत्रावसान से पहले विपक्ष के नेता से विचार-विमर्श किया जाए। लोकसभा के नेता प्रणव मुखर्जी ने 17 अक्टूबर को संसद की बैठक शुरू होने के तीसरे दिन ही विपक्ष के नेता को सरकार की मंशा बता दी थी। इसलिए विपक्ष की भी जिम्मेदारी बनती थी कि वह सरकार को संसद से खिलवाड़ करने से रोकने की कोशिश करती। विपक्ष इस बात के लिए सरकार पर दबाव बना सकता था कि मानसून सत्र का सत्रावसान कर दिया जाए। विपक्ष ने ऐसा दबाव नहीं बनाया इसलिए संसद की अवमानना के लिए विपक्ष भी कम जिम्मेदार नहीं है। एटमी करार को सिरे चढ़ाने की जिद के कारण संसद का बहुत अहित हुआ है। पिछले अगस्त में सरकार पर संकट के बादल मंडराने शुरू हुए थे, जो इस साल बजट सत्र के समय काफी घने हो गए थे। सरकार को इस बात का एहसास हो गया था इसलिए इस पूरे साल में सरकार ने संसद से भागने की कोशिश की। संसद के पचास साल पूरे होने पर प्रस्ताव पास करके फैसला किया गया था कि साल में कम से कम सौ दिन संसद और विधानसभाओं का सत्र चलना चाहिए। लेकिन इस पूरे साल में अब तक सिर्फ 35 दिन संसद चली है। विश्वासमत के दो दिनों समेत आठ दिन मानसून सत्र और बाकी 27 दिन बजट सत्र। मानसून सत्र को चालू रखने की रणनीति से स्पष्ट है कि सरकार का शीत सत्र बुलाने का कोई इरादा नहीं है। इसलिए आशंका पैदा होती है कि अगले साल बजट सत्र होगा भी या नहीं।

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