कांग्रेस उलझी टिकटों की बंदरबांट में

Publsihed: 25.Sep.2008, 21:06

कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, ज्योतिरादित्य और सुरेश पचौरी अपने-अपने समर्थकों को ज्यादा से ज्यादा टिकटें दिलवाने में मशगूल। अर्जुन सिंह टिकटों की बंदरबांट से दूर रहकर तमाशा देख रहे हैं, वह अपना खेल आखिर में शुरू करेंगे। मध्यप्रदेश में भाजपा को हराना खाला जी का घर नहीं। पिछले चार विधानसभा चुनावों में भाजपा हमेशा 39 फीसदी से ज्यादा वोट हासिल करती रही है जबकि कांग्रेस 1990 और 2003 में 31-32 फीसदी वोटों तक लुढ़क चुकी है।

मध्यप्रदेश में कांग्रेस और भाजपा में हमेशा कांटे की टक्कर रही है। लगातार कई साल तक दोनों पार्टियों में करीब दो फीसदी का वोट अंतर रहता था। जिसके वोट दो फीसदी ज्यादा हो जाते थे, वह सरकार बना लेता था।

लेकिन जब जनता किसी एक पार्टी से नाराज हो जाती थी, तो जीतने वाली पार्टी से उसका अंतर आठ-दस फीसदी तक जा पहुंचता था। ऐसा 1990 और 2003 के चुनाव में देखने को मिला जब प्रदेश की जनता कांग्रेस से बेहद नाराज हो गई तो उसका वोट गिरकर 32 फीसदी के आसपास आ अटका। बाबरी ढांचा टूटने के बाद नरसिंह राव ने भाजपा की मध्यप्रदेश, दिल्ली, हिमाचल, राजस्थान सरकारें गिराकर विधानसभाएं भंग कर दी थी। उस समय मध्यप्रदेश में भाजपा और कांग्रेस में दस फीसदी वोट का फर्क था। कांग्रेस को 32.67 फीसदी वोटों के साथ सिर्फ 33 सीटें मिली थीं जबकि भाजपा को 42.05 फीसदी वोटों के साथ 169 सीटें मिल गई थी। बाबरी ढांचा टूटने के करीब एक साल बाद हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा का वोट सिर्फ सवा दो फीसदी घटा था, लेकिन सीटें आधी घटकर सिर्फ 87 रह गई थी। कांग्रेस ने 1993 का लोकसभा चुनाव प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष दिग्विजय सिंह की रहनुमाई में लड़ा था। कांग्रेस को 40.60 फीसदी वोटों के साथ 120 सीटें मिली थी जबकि भाजपा को 39.81 फीसदी वोटों के साथ सिर्फ 87 सीटें मिली। पांच साल बाद 1998 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की चार सीटें और 0.16 फीसदी वोट में बढ़ोत्तरी हुई। दिग्विजय सिंह की लोकप्रियता तब शिखर पर थी। भाजपा का वोट आधा फीसदी घटा था और चार सीटें भी घट गई थी। तब तक बसपा अपना प्रभाव बढ़ा रही थी, 1993 के चुनाव में बसपा ने मध्यप्रदेश में दस सीटें हासिल कर ली थी और 1998 के चुनाव में भी आठ सीटें हासिल कर ली थी। दस साल के शासनकाल के बाद दिग्विजय सिंह की लोकप्रियता घटने लगी थी और चुनाव का मुद्दा बसपा बन रहा था। भाजपा ने ब-बिजली, स-सड़क, प- पानी को मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ा, तो दिग्विजय सिंह ने हालात का सामना करने के लिए बसपा से अंदरखाते चुनावी गठबंधन किया। भाजपा की बसपा दिग्विजय सिंह की बसपा पर भारी पड़ गई और चुनावों में कांग्रेस और बसपा दोनों को ही नुकसान हुआ।

2003 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 41.59 फीसदी से घटकर 31.60 फीसदी वोटों और 38 सीटों पर आ गिरी। जबकि भाजपा के वोटों में तीन फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई, जबकि उसकी सीटें दुगुनी से भी ज्यादा हो गई। भाजपा के वोट 39.28 से बढ़कर 42.49 फीसदी हुए थे लेकिन उसकी सीटें 83 से बढ़कर 173 हो गई। लब्बोलुवाब यह है कि दो फीसदी वोट का अंतर मध्यप्रदेश में हार-जीत तय करता था। हालांकि यह बात अलग है कि मध्यप्रदेश की जनता जब कांग्रेस से नाराज हुई, तो उसका वोट 31-32 फीसदी तक जा गिरता है, लेकिन भाजपा ने 1990 से लेकर 2003 तक के चार विधानसभा चुनावों में कभी भी 39 वोटों से कम हासिल नहीं किए। सवा चार साल पहले हुए लोकसभा चुनावों में भी जब सारे देश में भाजपा को नुकसान हुआ, मध्यप्रदेश में फायदा ही हुआ। इसलिए मध्यप्रदेश कांग्रेस के लिए आसान खेल नहीं है। छह महीने पहले तक दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में मध्यप्रदेश भाजपा की डूबती हुई नाव समझी जा रही थी, लेकिन पिछले छह महीनों में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने राजनीतिक गलियारों की धारणा को बदलना शुरू कर दिया है। जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं, भाजपा की स्थिति मजबूत और कांग्रेस की कमजोर होती जा रही है।

1993 में कांग्रेस ने सिर्फ तीन साल के अंतर में अपने वोटों में आठ फीसदी की बढ़ोत्तरी करके सत्ता हासिल की थी, जबकि भाजपा के वोट में सिर्फ दो फीसदी की गिरावट आई थी। उस समय केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी और अपनी पार्टी को फायदा पहुंचाने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने एक साल तक राज्यपाल शासन लगाकर प्रशासन को कांग्रेस के अनुकूल किया। सिर्फ इतना ही नहीं, अलबत्ता नरसिंह राव की पार्टी नेताओं को एकजुट करने की रणनीति भी कामयाब रही थी। नरसिंह राव के निर्देश पर माधव राव सिंधिया ने डबरा में पार्टी की एकता रैली करके कई गुटों में बंटे सभी नेताओं को एक मंच पर ला खड़ा किया था। कांग्रेस को विधानसभा चुनावों में जीत दिलाने में नरसिंह राव की रणनीति की महत्वपूर्ण भूमिका थी। जबकि अब कांग्रेस के पास नरसिंह राव जैसा कोई रणनीतिकार नहीं है। जहां तक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का सवाल है तो साढ़े चार साल प्रधानमंत्री और पांच साल वित्त मंत्री रहने के बावजूद वह चुनावी राजनीति में अनाड़ी ही हैं। गुटीय राजनीति को समझना और हालात को पार्टी के अनुकूल करना उनके बस का रोग नहीं है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का ज्यादातर समय पार्टी नेताओं की गुटबाजी को समझने और समझाने-बुझाने में ही बीत रहा है। नतीजा सबके सामने है, नरसिंह राव के समय डबरा रैली ने कांग्रेस को एकजुट करके जीत हासिल दिला दी थी, तो सोनिया गांधी के वक्त कांग्रेस एकता के लिए की गई छिंदवाड़ा रैली नेताओं में फूट बढ़ाने का कारण बन गई।

आज हालात यह हैं कि कांग्रेस के पांच बड़े नेता मुख्यमंत्री की कुर्सी को सामने देखकर अपने-अपने समर्थकों को ज्यादा से ज्यादा टिकट दिलाने की जद्दोजहद कर रहे हैं। कमलनाथ का पलड़ा इस समय सोनिया गांधी के दरबार में सबसे ज्यादा भारी है। इसकी वजह वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के माध्यम से जुट रही भारी भरकम राशि है। हालांकि कमलनाथ इटली के पत्थर आयात की नीति बदलने के मामले में विवादों में घिरे हुए हैं, लेकिन उन्हें इसकी कोई परवाह नहीं, क्योंकि सब कुछ कांग्रेस पार्टी को फायदा पहुंचाने के लिए हो रहा है।  इससे सोनिया गांधी की निगाह में कमलनाथ का राजनीतिक कद भी ऊंचा हुआ है। इसलिए माना जा रहा है कि टिकटों के बंटवारे में कमलनाथ का पलड़ा ही भारी रहेगा, दिग्विजय सिंह भी उन्हीं के समर्थन में। दोनों अर्जुन सिंह के पुराने शागिर्द, भले ही लोक दिखावे के लिए दिग्विजय सिंह खुद को तटस्थ घोषित कर दें, लेकिन यह रणनीति का हिस्सा ही होगा। कमलनाथ-दिग्विजय सिंह के बाद तीसरे नंबर पर ज्योतिरादित्य हैं, जिनकी सोनिया गांधी तक सीधी पहुंच है, लेकिन उनका दायरा ग्वालियर के आसपास तक ही सीमित है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सुरेश पचौरी चौथे नंबर पर आ रहे हैं, इसकी वजह यह है कि वह पहली बार प्रदेश की राजनीति में हिस्सा ले रहे हैं। इससे पहले उनकी दिलचस्पी केंद्रीय राजनीति में ही रही है, प्रदेश में उनका अपना मजबूत खेमा भी नहीं है। इसलिए कांग्रेस को बहुमत मिलने के बावजूद सोनिया गांधी की व्यक्तिगत इच्छा होने पर ही वह मुख्यमंत्री बन पाएंगे। टिकटों के बंटवारे में अर्जुन सिंह की चुप्पी कांग्रेसी हलकों में आश्चर्य से देखी जा रही है। हालांकि उनका बेटा अजय सिंह टिकटों के बंटवारे में दिलचस्पी ले रहे हैं, लेकिन उनका दायरा भी अर्जुन सिंह के मुकाबले बहुत कम है। अर्जुन सिंह को जानने वाले अच्छी तरह जानते हैं कि वह अपना आखिरी दांव आखिरी समय पर ही चलते हैं। इसलिए आखिर में दस-पंद्रह टिकटें बदलवाकर वह सबका संतुलन बिगाड़ सकते हैं। कांग्रेस विधानसभा चुनाव जीत गई, तो कमलनाथ और सुरेश पचौरी की दावेदारी में अजय सिंह की लाटरी खुलने की उम्मीद रखने वाले भी कम नहीं।

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