ओलंपिक के बहाने तिब्बत का दर्द

Publsihed: 15.Mar.2008, 20:40

दुनिया के ज्यादातर हिस्सों पर राज करने की ख्वाहिश ने 19वीं सदी तक लाखों-करोड़ों बेगुनाहों का खून बहाया है। पंद्रहवीं सदी में मुगल भी हिंदोस्तान पर राज करने की ख्वाहिश लेकर भारत आए थे और उन्होंने हिंदू राजाओं के साथ युध्द करके विस्तारवादी मुहिम जारी रखी। मुगल हिंदोस्तान के ज्यादातर हिस्से पर काबिज हो गए थे, तभी ब्रिटिश विस्तारवादी शासकों की निगाह भारत पर पड़ी। ठीक इसी तरह तिब्बत पर कभी सिंघाई और कभी मंगोलिया काबिज होते रहे। मंगोलिया के तिब्बत छोड़कर जाने के बाद वहां के कुछ हिस्से पर सिंघाई का राज था। लेकिन तिब्बतियों का आजादी के लिए संघर्ष कभी भी रुका नहीं।

नतीजतन 1723 में सिंघाई शासकों को भी मध्य तिब्बत छोड़कर जाना पड़ा। इसके बाद तिब्बत में गृहयुध्द शुरू हो गया और चीन ने एमडो पर कब्जा कर लिया, जो बाद में 1929 में सिंघाई प्रांत का हिस्सा बना दिया गया। तिब्बत में गृहयुध्द का फायदा उठाकर चीन ने 1927 में अपने दो उच्चायुक्त नियुक्त किए जिन्हें अंबन कहा गया। चीन समर्थक इतिहासकारों का दावा है कि इन अंबन की मौजूदगी इस बात का सबूत है कि तिब्बत चीन का हिस्सा था। लेकिन सच्चाई यह है कि अंबन वास्तव में चीन के एम्बेसडर (राजदूत) थे। यह इस बात का सबूत है कि तिब्बत पर चीन का कब्जा खत्म हो चुका था। चीन का अगर यह दावा भी मान लिया जाए कि उस समय तिब्बत पर उसका शासन चलता था, इसलिए तिब्बत पर चीन का हक है, तो क्या भारत पर अफगानिस्तान का हक नहीं बनता, जहां के मुगल शासकों ने कई सदियों तक भारत पर राज किया। क्या भारत के गोवा प्रांत पर पुर्तगाल का हक मान लिया जाए, जिसने ब्रिटिश काल में भी गोवा पर कब्जा बनाए रखा। क्या पांडिचेरी पर फ्रांस का हक नहीं होना चाहिए, जो ब्रिटिश राज खत्म होने तक काबिज थे। क्या कर्नाटक के मेंगलूर और केरल के माही पर हौंलेंड का अब भी हक नहीं बनता, जिसका शासन ब्रिटिश काल में भी बना हुआ था।यह इतिहास का सच है कि 1728 में तिब्बती शासक फो-ल्हा-नस ने चीन का समर्थन करना शुरू कर दिया था, क्योंकि फो-ल्हा-नस को तिब्बती धार्मिक गुरु दलाई लामा का दखल पसंद नहीं था, जबकि इससे पहले मंगोलिया शासन के समय भी राज-पाट में दलाई लामा की अहमियत बनी रही थी। चीन के लिए तिब्बत पर अपना नियंत्रण बनाने का इससे बढ़िया मौका नहीं था इसलिए उसने सातवें दलाई लामा केलजंग ग्यात्सो को बीजिंग में आमंत्रित किया। दलाई लामा को निमंत्रण फो-ल्हा-नस के साथ चीन की मिलीभगत के तहत दिया गया था। लेकिन बाद में दलाई लामा को 23 साल तक तिब्बत नहीं लौटने दिया गया। फो-ल्हा-नस की मौत के बाद उसके बेटे ने तिब्बत पर राज किया, लेकिन 1750 में चीन के अंबनो ने उसकी हत्या कर दी क्योंकि वह चीन के इशारों पर नहीं चल रहा था। इस पर तिब्बत में दंगे शुरू हो गए और इन दंगों में चीन के दोनों अंबनों की हत्या कर दी गई। इसे बहाना लगाकर चीन ने अपनी सेना तिब्बत में भेज दी। सिंघाई के शासकों ने मौके का फायदा उठाते हुए तिब्बत के राजा (देशी) का पद खत्म कर दिया और चार सदस्यीय मंत्रिपरिषद का गठन कर दिया, जबकि वास्तविक शक्ति नए नियुक्त किए गए दो अंबनों को दे दी। मंत्रिपरिषद की अध्यक्षता करने के लिए दलाई लामा को वापस ल्हासा भेजा गया। दूसरी तरफ इतिहासकारों का यह भी मानना है कि चीन थककर हार गया था और दलाई लामा को वास्तविक सत्ता सौंप दी थी। नेपाल के गोरखा राजा पृथ्वी नारायण सिंह ने 1788 में जब तिब्बत पर हमला किया तो दलाई लामा ने चीन से मदद मागी, चीन इस शर्त पर मदद देने को तैयार हुआ कि नए दलाई लामा या पंचेन लामा की नियुक्ति में उसकी भूमिका रहेगी। इस तरह तिब्बत ने मजबूरी में चीन का दखल हमेशा-हमेशा के लिए आमंत्रित कर लिया। गोरखे न सिर्फ हार गए अलबत्ता नेपाल पर भी तिब्बत का अधिकार हो गया। नतीजतन 1792 में चीन ने अपने अंबनों की ताकत में बढ़ोत्तरी करके दलाई लामा और पंचेन लामा के बराबर कर दी। तिब्बत के वित्तीय, कूटनीतिक और व्यापारिक मामलों पर चीन के अंबनों का अधिकार हो गया। बिल्कुल उसी तरह, जिस तरह ब्रिटिश शासकों ने भारतीय रियासतों के राजाओं के साथ समझौते करके वित्तीय, कूटनीतिक और व्यापारिक मामलों पर नियंत्रण किया था।

19वीं सदी में सिंघाई शासकों की ताकत घटने लगी और ल्हासा में नियुक्त किए गए अंबनों का प्रभाव भी खत्म हो गया। इस बीच भारत पर ब्रिटिश शासकों का कब्जा हो चुका था और उन्होंने तिब्बतियों को नेपाल से बेदखल कर दिया। अब चीन का दावा यह भी है कि 1788 से लेकर 1908 तक नेपाल पर चीन सरकार का राज रहा था। चीन का यह भी दावा है कि 1856 के समझौते में नेपाल और तिब्बत ने चीन का आधिपत्य मंजूर कर लिया था। लेकिन दूसरी तरफ ऐतिहासिक तथ्य यह भी है कि 1895 में चीन और जापान के युध्द के समय तिब्बत पर ही चीन का कब्जा खत्म हो गया था।

1904 में ब्रिटिश फौज ने लेफ्टिनेंट कर्नल फ्रांसिस यंगहसबेंड की रहनुमाई में भारतीय फौज को ल्हासा पर कब्जा करने भेजा, छोटे-मोटे युध्द के बाद फ्रांसिस ने ल्हासा पर कब्जा कर लिया, तभी चीन ने दावा किया कि तिब्बत उसका अभिन्न अंग है। तिब्बत पर चीन के कब्जे का यह पहला आधिकारिक बयान था। लेकिन तिब्बत पर कब्जा करने की संधि पर दस्तखत करने से पहले ही दलाई लामा मंगोलिया भाग चुके थे। इसलिए फ्रांसिस यंगहसबेंड छोटे-मोटे तिब्बती अधिकारियों के दस्तखत करवाकर ही तिब्बत पर कब्जे की औपचारिकता पूरी कर पाए। तथाकथित संधि के मुताबिक तिब्बत ने ब्रिटिश इंडिया के साथ लगती सीमा खोल दी थी, ब्रिटिश और भारतीय व्यापारियों को खुलेआम आने-जाने की छूट दे दी थी, भारत के साथ किसी तरह के व्यापार पर कोई टैक्स नहीं लगना था और बिना ब्रिटिश शासकों की इजाजत से तिब्बत किसी अन्य देश के साथ संबंध नहीं बनाएगा। इसके अलावा तिब्बत को दो करोड़ पचास लाख रुपए भी अदा करने थे। तिब्बतवासी 1904 तक बार-बार विदेशियों के कब्जे के बावजूद अपनी स्वतंत्रता को बरकरार रखने में सफल रहे थे। लेकिन 1904 में ब्रिटेन और रूस की संधि ने आधुनिक युग में भी तिब्बत को चीन का गुलाम बनने के लिए मजबूर कर दिया, जिसके तहत 1906 में ब्रिटेन ने चीन को तिब्बत संधि का हिस्सेदार बना लिया। इस संधि के तहत चीन का तिब्बत में दखल शुरू हो गया, भरपाई के तौर पर चीन ने ब्रिटिश शासकों को दो करोड़ पचास लाख रुपए की अदायगी कर दी। चीन की सरकार ने झाओ इरफांग को तिब्बत की सेना का कमांडर नियुक्त कर दिया, उसका काम था कि वह तिब्बत के चीन में पूरी तरह विलय करवाने का काम शुरू करे। झाओ इरफांग ने ल्हासा पहुंचते ही अत्याचारों का सिलसिला शुरू किया। उन्होंने तिब्बती नेताओं के सारे अधिकार खत्म कर दिए, तिब्बती मजिस्ट्रेटो को हटाकर चीनी मजिस्ट्रेट तैनात किए गए, एक नए कानून के तहत लामाओं की तादाद तय कर दी गई और तिब्बत में आकर बसने वाले चीनी नागरिकों के लिए कृषि भूमि की योजना शुरू की गई। झाओ के इशारे पर तिब्बती मठों को नष्ट करना शुरू कर दिया गया, धार्मिक तस्वीरों को हटा दिया गया और पत्थरों पर लिखे प्राचीन धार्मिक लेखों की तोड़फोड़ शुरू हो गई। तिब्बती संस्कृति को नष्ट करने का हर हरबा इस्तेमाल किया गया। झाओ की ओर से तिब्बत में अपनाई गई नीति ही बाद में कम्युनिस्ट नीति बनी। झाओ की तिब्बत पर कब्जा करने की नीति कामयाब रही थी और चार साल बाद 1910 में चीन की फौज तिब्बत में घुस गई और दलाई लामा को भारत भागना पड़ा। लेकिन अक्टूबर 1911 में ही सिंघाई पर राज करने वाले सिंघवंश का खात्मा हो गया और फौज ने झाओ का भी सिर कलम कर दिया। दलाई लामा एक बार फिर तिब्बत लौट गए, लेकिन भारत की आजादी के बाद चीन ने तिब्बत पर पूरी तरह कब्जा करके दलाई लामा को भारत भागने के लिए मजबूर कर दिया। शुरू-शुरू में भारत सरकार तिब्बत पर चीन के कब्जे को नाजायज करार देती रही, लेकिन अरुणाचल और सिक्किम पर समझौता करने की गरज से भारत सरकार ने भी ब्रिटिश सरकार की तरह चीन के सामने घुटने टेक दिए हैं, लेकिन पिछले सौ साल से तिब्बती अपनी सर-जमीं को आजाद करवाने के लिए कभी गांधी के रास्ते पर, तो कभी नेता जी सुभाष चंद्र बोस के रास्ते पर चलकर संघर्ष कर रहे हैं। इसी साल अगस्त महीने में चीन में होने वाले ओलंपिक खेलों से पहले अपनी गुलामी की तरफ दुनिया का ध्यान आकर्षित करने के लिए तिब्बती एक बार फिर ल्हासा की गलियों में अपना खून बहाने उतर आए हैं।

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