गुटबाजी पर भारी पड़ रहे गड़करी

Publsihed: 08.Feb.2010, 09:52

नितिन गड़करी के अध्यक्ष बनते ही भारतीय जनता पार्टी की धोती उतर गई। राजनाथ सिंह, लालकृष्ण आडवाणी, वेंकैया नायडू, जना कृष्णामूर्ति सब धोती वाले अध्यक्ष थे। सूटेड-बूटेड अध्यक्ष नितिन गड़करी ने अपनी पहली ही प्रेस कांफ्रेंस में बदली हुई भाजपा के दर्शन करवाए। प्रेस कांफ्रेंस के बाद परोसे गए दोपहर भोज में मांसाहारी व्यंजनों ने सबको चौंकाया। भाजपा दफ्तर में मांसाहारी सार्वजनिक भोजन का आयोजन पहली बार हुआ था। इससे पहले मांसाहारी भोजन के शौकीन वेंकैया नायडू साल में एक बार अपने घर पर ही दोपहर भोज का आयोजन करते थे। जनसंघ के जमाने से भाजपा दफ्तर शुध्द ब्राह्मणवादी छुआछूत के अंदाज से चल रहा था।

ऐसा नहीं है कि भाजपा के नेता मांसाहारी नहीं थे। वे सिर्फ सार्वजनिक तौर पर मांसाहारी नहीं थे। अटल बिहारी वाजपेयी को एक बार किसी ने ब्रह्मचारी कहा था।  तो उन्होंने पलटकर कहा था- 'मैं कुंआरा हूं।' इसी तरह भाजपा दफ्तर में जब मांसाहारी भोजन का आयोजन हुआ, तो कई चेहरे बेनकाब हुए। नितिन गड़करी ने मीडिया को पारदर्शिता की यह पहली झलक दिखाई थी।

नितिन गड़करी के अध्यक्ष बनते ही भाजपा में ही तरह-तरह के सवाल खड़े हो रहे थे। उनके चयन को संघ का थोपा हुआ फैसला बताया गया। उनका कद राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से कम बताया गया। यह भी कहा गया कि भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टी के लिए जैसा लोकप्रिय अध्यक्ष होना चाहिए, वैसे नहीं हैं नितिन गड़करी। कुछ लोगों ने उन्हें राजनाथ सिंह से भी ज्यादा गलत फैसला बताना शुरू कर दिया था। लेकिन अपने डेढ़ महीने के कार्यकाल में भले ही वह जननेता की छवि बनाने में नाकाम दिख रहे हों, लेकिन राज्यों में पार्टी को गुटबाजी से निकालने में कामयाब रहे हैं। राजनाथ सिंह के जमाने में पार्टी भयंकर गुटबाजी का शिकार हो गई थी, जिसे सुधारना आसान काम नहीं। इसके बावजूद पिछले डेढ़ महीने में नितिन गड़करी ने राजस्थान, पंजाब और हिमाचल की गुटबाजी पर नकेल डालने में महत्वपूर्ण सफलता हासिल की है। इन तीनों राज्यों से ज्यादा गुटबाजी का शिकार उत्तर प्रदेश और दिल्ली उनके ताजा एजेंडे पर है। दोनों ही राज्यों में नेताओं को घंटों आमने-सामने बिठाकर हल निकालने की कोशिशों में जुटे हुए हैं गड़करी। राजस्थान का विवाद सबसे ज्यादा उलझा हुआ था। पहले विधानसभा चुनावों में करारी हार और बाद में लोकसभा चुनावों में पार्टी का बंटाधार हुआ। राजनाथ सिंह ने विधानसभा चुनाव से ठीक पहले महेश शर्मा की जगह पर ओमप्रकाश माथुर को अध्यक्ष बनाकर भेजा था जिस पर लालकृष्ण आडवाणी बेहद खफा थे। लंबी जद्दोजहद के बाद राजनाथ सिंह अपना फैसला लागू करवाने में कामयाब हो गए। तो प्रदेश में ओमप्रकाश माथुर की वसुंधरा राजे के सामने ताकतवर अध्यक्ष की पहचान बन गई। प्रदेश अध्यक्ष और मुख्यमंत्री के छत्तीस के आंकड़े ने राजस्थान में भाजपा की लुटिया डुबो दी। करारी हार के बाद प्रदेश अध्यक्ष ओमप्रकाश माथुर ने वसुंधरा राजे पर प्रहार करने के लिए संगठनमंत्री प्रकाश चंद जैन पर निशाना साधा। उन्होंने अध्यक्ष पद से इस्तीफा भेजते हुए आलाकमान को लिखा था कि प्रदेश में या तो वह काम कर सकते हैं या प्रकाश चंद। दोनों इकट्ठा नहीं कर सकते। प्रकाश चंद से पहले ओमप्रकाश माथुर प्रदेश के संगठन मंत्री हुआ करते थे। संघ और आलाकमान ने वसुंधरा, माथुर और प्रकाश चंद तीनों को ही पदों से हटाने का फैसला करके समस्या का इलाज करने का फैसला किया था। माथुर का इस्तीफा मंजूर करने के बाद प्रकाश चंद से इस्तीफा लिया गया और वसुंधरा को विपक्ष के नेता पद से इस्तीफा देने की हिदायत दी गई। इस पर वसुंधरा राजे और राजनाथ सिंह का टकराव सारे देश के सामने आ गया। नितिन गड़करी ने अपने अध्यक्ष बनने के तीसरे ही दिन राजस्थान के सभी नेताओं को एक कमरे में बिठाकर हल निकलने तक बाहर नहीं जाने देने की हिदायत दे दी। उनकी इस शैली से पार्टी में अनुशासन की नई शुरूआत हुई। सात घंटे की मीटिंग में वह सर्वमान्य हल निकालने में कामयाब हो गए। अब वसुंधरा को नितिन गड़करी अपनी राष्ट्रीय टीम में शामिल करेंगे, लेकिन वह अगले विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री पद की दावेदार होंगी। वसुंधरा के विरोध के बावजूद अरुण चतुर्वेदी ही भाजपा अध्यक्ष चुने जाएंगे।

हिमाचल की गुटबाजी राजस्थान से भी ज्यादा पेचींदा थी। मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल पार्टी अध्यक्ष पद पर अपने करीबी सोलन के विधायक राजीव बिंदल को बिठाना चाहते थे। हालांकि खीमी राम को विधानसभा उपाध्यक्ष पद से हटाकर प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया था। धूमल की रणनीति को देखते हुए शांताकुमार ने रोहड़ू से पहली बार विधायक चुने गए खुशीराम बालनाहटा को अध्यक्ष बनाने की मुहिम छेड़ दी। इसी बीच युवा मोर्चे के पुराने सहयोगी नितिन गड़करी के अध्यक्ष बनने से उत्साहित युवा मोर्चे के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नङ्ढा ने मंत्री पद छोड़कर अध्यक्ष पद पर दावा ठोकना शुरू कर दिया। बात दिल्ली दरबार तक पहुंची तो नितिन गड़करी ने  सबकी बात सुनने के बाद पुराने अध्यक्ष को बनाए रखने पर आपत्ति पूछी। इस पर न शांताकुमार के पास कोई जवाब था, न प्रेमकुमार धूमल के पास। अंतत: शांता और  धूमल दोनों चुप्पी साध गए और जेपी नङ्ढा के अध्यक्ष बनने का ख्वाब भी धरा रह गया।

अरुण जेटली ने कमल शर्मा को दो साल पहले ही दिल्ली से पंजाब प्रदेश भाजपा का महासचिव बनवाकर भिजवाया था। इस बार चुनाव से पहले कमल शर्मा अध्यक्ष पद के दावेदार हो गए। संघ और दिल्ली में अपनी पहुंच के जरिए कमल शर्मा अपना नाम पक्का करवाकर चले गए थे। नितिन गड़करी पूरी तरह अंधेरे में थे। आलाकमान का फैसला सुनकर प्रदेश के विधायक और मंत्री दंग रह गए। ठीक चुनाव वाले दिन बगावत के हालात पैदा हो गए, तो चुनाव टालना पड़ा। सभी दिल्ली में नितिन गड़करी के दरबार में पहुंचे तो घंटेभर की बैठक में ही फैसला पलट गया। गड़करी ने कमल शर्मा की बजाए विधायकों और मंत्रियों के समर्थन वाले अश्विनी शर्मा को अध्यक्ष बनाने पर सहमति दे दी। इस तरह नितिन गड़करी ने सभी को आमने-सामने बिठाकर आम सहमति के आधार पर नई भाजपा का गठन करने और ऊपर की पहुंच के आधार पर पदों पर कब्जा करने की रिवायत को खत्म करना शुरू कर दिया है। गड़करी के सामने अब सबसे बड़ा संकट उत्तर प्रदेश और दिल्ली में भाजपा को खड़ा करना है, जो पिछले दस साल से लगातार आधारहीन होती जा रही है।

जहां एक तरफ भाजपा के नए अध्यक्ष ने अपने विधिवत चुनाव और इंदौर अधिवेशन में उसकी पुष्टि से पहले ही राज्यों की गुटबाजी को समझकर खत्म करना शुरू किया है, वहीं उनके सामने सबसे बड़ी समस्या आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत की पसंद वाली युवा भाजपा टीम बनाना है। असल में पंद्रह साल पहले लालकृष्ण आडवाणी की टीम सर्वाधिक ताकतवर और प्रभावी थी। उस टीम में गोविंदाचार्य, अरुण जेटली, प्रमोद महाजन, सुषमा स्वराज, वेंकैया नायडू जैसे लोकप्रिय चेहरे शामिल थे। राजनाथ सिंह की टीम में संगठन मंत्री रामलाल, अरुण जेटली, अनंत कुमार और गोपीनाथ मुंडे के सिवा कोई ताकतवर नहीं था। गोपीनाथ मुंडे महासचिव जरूर बनाए गए थे, लेकिन उनकी दिलचस्पी दिल्ली में कभी थी ही नहीं। हालांकि अब सांसद बनने के बाद उन पर लोकसभा में उपनेता और पीएसी अध्यक्ष बनने की जिम्मेदारी सिर्फ इसलिए आ गई है, क्योंकि नितिन गडकरी के अध्यक्ष बनने के बाद उनसे सीनियर गड़करी की संगठन में उनकी भूमिका नहीं हो सकती। विजय गोयल, थावरचंद गहलोत और विनय कटियार का कद पार्टी महासचिव लायक कभी था ही नहीं। नितिन गड़करी महासचिव के पद भरने के बजाए काम करने वाले लोकप्रिय चेहरों को सामने लाने की रणनीति बना रहे हैं ताकि भाजपा की छवि बेहतर हो सके। रामलाल जी का संगठन मंत्री और अनंत कुमार का महामंत्री बना रहना तय ही माना जा रहा है। जबकि नए महासचिवों में वसुंधरा राजे, रविशंकर प्रसाद, मनोहर परिकर, शाहनवाज हुसैन या धर्मेन्द्र प्रधान में से चार होंगे। ओबीसी और दलित का पेंच फंसा हुआ है, इस पेंच का फायदा उठाकर थावरचंद गहलोत अध्यक्ष बने रह सकते हैं। राहुल गांधी की आभा को तोड़ने के लिए नितिन गड़करी ने वरुण गांधी को  भाजपा युवा मोर्चे का अध्यक्ष बनने के लिए राजी कर लिया है। हालांकि इससे पहले जब उन्हें यह पेशकश की गई थी, तो उन्होंने ठुकरा दी थी।

इंदौर का भाजपा अधिवेशन नितिन गड़करी की अध्यक्ष पद पर बाकायदा ताजपोशी के लिए बुलाया गया है। अपने जीवन में दीनदयाल उपाध्याय की कार्यशैली अपनाने वाले गड़करी ने इंदौर अधिवेशन को प्राचीनता और आधुनिकता का संगम दर्शाने के कड़े निर्देश दिए हैं। आमतौर पर सभी राजनीतिक दल अपने राष्ट्रीय अधिवेशन के लिए उन्हीं राज्यों को चुनते हैं जहां उनके दल की सरकार हो। इस मामले में भारतीय जनता पार्टी भी दूसरों से अलग नहीं। अपनी सरकार वाले राज्य में अधिवेशन होने से इंफ्रांस्ट्रक्चर के कई फायदे मिलते हैं, जो इंदौर में भाजपा को मिलेंगे ही। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि भाजपा ने इस महत्वपूर्ण आयोजन के लिए मध्यप्रदेश को चुना है। फिर सवाल खड़ा होता है कि मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल की जगह इंदौर क्यों? सुनते हैं, इस मामले में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह पर भारी पड़े हैं उनके विरोधी, लेकिन उनके सरकार के मंत्री कैलाश विजयवर्गीय।

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