कांग्रेस को हरियाणा में झटका, बीजेपी को सब जगह

Publsihed: 23.Oct.2009, 10:25

हरियाणा में अपन ने ऐसा तो नहीं सोचा था। झटका लगेगा, यह तो पता था। पर बहुमत नहीं मिलेगा। अपन को ऐसी आशंका नहीं थी। पर कांग्रेस आलाकमान को आशंका हो गई थी। आशंका न हुई होती। तो मोती लाल वोरा और आरके धवन पोलिंग के बाद भजन लाल से न मिलते। चुनाव शुरू हुआ। तो हालात ऐसी नहीं थी। पर चुनाव रोहतक बनाम बाकी हरियाणा बन गया। तो हालात बदल गए। चौटाला जब कहा करते थे- 'हुड्डा हरियाणा के नहीं, रोहतक के सीएम।' तो कांग्रेस ने उसे गंभीरता से नहीं लिया। पर यह बात चुनावों में साफ दिखने लगी थी। हुड्डा ने वक्त से पहले चुनाव करवाए। हालात तो हुड्डा के पक्ष में थे। पहले मायावती-भजनलाल गठबंधन टूटा। फिर चौटाला-बीजेपी गठबंधन टूटा। फिर कुलदीप-बीजेपी गठबंधन होते-होते टूटा। पांच कोणीय चुनावों में भी कांग्रेस की दुर्गति हुई।

कांग्रेस 67 से 40 पर आ गई। जोड़तोड़ से सरकार भले बना ले। पर अपन से पूछिए तो हरियाणा में कांग्रेस हारी। चौटाला-बीजेपी-कुलदीप को एक सीट ज्यादा मिली। सोचो, चौटाला-बीजेपी गठबंधन न टूटता। तो क्या बहुमत न आता। चौटाला-कुलदीप-बीजेपी गठबंधन होता। तो कांग्रेस का बाजा बज जाता। हुड्डा के राज में पुलिसगर्दी की हद हो गई थी। चौटाला को भी पीछे छोड़ दिया था हुड्डा ने। अखबारों की खबरें खरीदकर चुनाव नहीं जीते जाते। जनता का दिल ही दिलाता है वोट। यह अब हुड्डा को समझ आ गया होगा। भजन लाल से बात बनी। तो हुड्डा का सीएम बनना असंभव। बनी तो शैलजा बनेगी। जहां तक बात अरुणाचल की। तो वहां यही होना था। चीन के मुकाबले मनमोहन कमजोर पड़े होते। तो वहां भी कांग्रेस की दुर्गत होती। अरुणाचल में सोनिया कार्ड नहीं। मनमोहन कार्ड चला। चीन ने भी मनमोहन के दौरे पर एतराज जताकर मदद की। यों भी अरुणाचल का ऊंट दिल्ली की करवट ही बैठता है। अपन बताते जाएं- कांग्रेस 34 से बढ़कर 40 हुई। एनसीपी दो से बढ़कर सात। बीजेपी नौ से घटकर दो। पर राज की बात बताएं। चुनावों से ठीक पहले बीजेपी-एनसीपी का एक भी एमएलए नहीं था। दोनों दलों के एमएलए कांग्रेसी हो गए थे। सो चुनाव से पहले कांग्रेस 34 नहीं, 45 थी। घटकर 40 हो गई। बीजेपी-एनसीपी का नया खाता खुला। अब बात महाराष्ट्र की। अपन लोकसभा चुनाव के वक्त की एसेंबली देखें। नारायण राणे दस शिवसैनिक विधायकों को इस्तीफा करा चुके थे। करीब करीब सभी कांग्रेसी एमएलए हो गए थे। कांग्रेसी विधायकों की तादाद 69 से बढ़कर 79 थी। एनसीपी की 71 से घटकर 68 हो चुकी थी। अब लोकसभा चुनावों को लें। कांग्रेस 81 सीटों पर बढ़त में थी। एनसीपी 51  पर। कांग्रेस 81 से बढ़कर 83 हो गई। एनसीपी 51 से बढ़कर 62 हुई। लोकसभा चुनावों के बाद बीजेपी-शिवसेना की ताकत और घटी। वजह भले ही राजठाकरे हों। जिनने बालठाकरे के मराठी वोटों में सेंधमारी की। कांग्रेस को दो पुराने शिवसैनिकों ने मजबूत किया। नारायण राणे और राजठाकरे। दोनों ने उध्दव ठाकरे का बाजा बजा दिया। बाल ठाकरे की विरासत नहीं संभाल पाए उध्दव। वैसे बीजेपी-शिवसेना जीतती। तो शरद पवार को मजा आता। कांग्रेस-एनसीपी जीत की वजह पूछी। तो वह बोले- 'बीजेपी-शिवसेना जनता का भरोसा जीतने में नाकाम रहे।' यानी यूपीए अपनी वजह से नहीं। एनडीए की वजह से जीती। यों जैसे उध्दव-राज टकराव में शिवसेना को नुकसान हुआ। वैसे ही मुंडे-गड़करी टकराव में बीजेपी का बंटाधार हुआ। शिवसेना तो इतिहास के सबसे निचले पायदान पर आ गिरी। शिवसेना ने नब्बे में पहला चुनाव लड़ा। तो 52 सीटें जीती थीं। अगले 95 के चुनाव में 73 हुई। तो सरकार बनी। पर 99 में घटकर 59 हो गई। पिछले चुनाव में 62 हुई। अब शिवसेना इतिहास की सबसे कम 44 सीटें। बेटे से भतीजा बेहतर निकला। बिना गठबंधन अपने बूते 13 सीटें जीत ली। बीजेपी-शिवसेना को 35 पर नुकसान किया। उध्दव -राज का टकराव भी कुछ कुछ मुकेश-अनिल जैसा। अंबानी परिवारों जैसा झगड़ा ही ठाकरे परिवार का। फर्क सिर्फ सगे और चचेरे भाई का। परिवारों की बात चली। तो बताते जाएं- जैसे बाल ठाकरे की विरासत नहीं संभाल पाए उध्दव। वैसे प्रमोद महाजन की विरासत नहीं संभाल पाई बेटी पूनम। भजन लाल की विरासत नहीं संभाल पाए बेटे कुलदीप। देवी लाल की विरासत संभालने में उतने फिसड्डी नहीं रहे चौटाला।

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