काबुल में अपन ही क्यों 'आतंकियों' का निशाना

Publsihed: 08.Oct.2009, 21:27

अफगानिस्तान की राजधानी काबुल। काबुल में अपना दूतावास फिर बना आतंकियों का निशाना। आईएसआई का हाथ बताना अभी जल्दबाजी होगा। वरना पाकिस्तान फिर कहेगा- 'जांच से पहले पाक पर तोहमत की अपनी आदत।' पर काबुल में कोई और भारतीय दूतावास को निशाना बनाएगा ही क्यों। अपन तो 42 देशों की नाटो फोर्स में भी शामिल नहीं। जो अफगानिस्तान में तालिबान से लड़ रहीं। अपना रोल तो सिर्फ अफगानिस्तान के नव निर्माण का। सड़कों का निर्माण। अस्पतालों-स्कूलों-इमारतों का निर्माण। अपन आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई से सीधे नहीं जुडे। सीधा जुड़ा है पाकिस्तान। फिर बार-बार भारतीय दूतावास पर हमले क्यों। समझना मुश्किल नहीं। अफगानिस्तान में अपनी मौजूदगी से जली-भुनी बैठी है आईएसआई।

उस खबर की तो अभी स्याही भी नहीं सूखी। जिसका अपन ने कल जिक्र किया। साठ तालिबानियों के सरंडर करने वाली। साठों को आईएसआई ने कहा- 'कश्मीर में जाकर जेहाद करो। या जेल में सड़ो।' तो अड़तालिस घंटे बाद अपन ने काबुल में धमाके सुने। तालिबान के नुमाइंदे जबिउल्लाह मुजाहिद ने कहा- 'हां, हमने किया है धमाका।' जबिउल्लाह का बयान इंटरनेट पर जारी हुआ। निशाना तो भारत ही था। इसमें कहां शक। बगल वाली होम मिनिस्ट्री की बिल्डिंग निशाना होती। तो विस्फोटकों से भरी वह कार दूतावास के सामने नहीं। मिनिस्ट्री के सामने खड़ी होती। शुकर है इस बार अपना कोई नागरिक नहीं मरा। सात सितंबर 2008 को याद करिए। जब विस्फोटकों से भरी कार घुसी थी दूतावास में। साठ लोग मारे गए थे। दो तो अपने डिप्लोमेट थे। इस बार कार दूतावास में नहीं घुस सकी। इसे अपने सुरक्षा बंदोबस्त की कामयाबी मानिए। गुरुवार को हुई सीसीएस में अपने आला मंत्री इसी पर संतुष्ट दिखे। यों सीसीएस नक्सलवाद पर थी। पर अपने दूतावास पर हमला भी कोई कम गंभीर नहीं। सो चर्चा का अहम मुद्दा यह भी बना। चलते-चलते नक्सलियों वाली बात भी बताते जाएं। लाइन तो पहले से तय थी। चिदंबरम बुधवार को मुंबई में बोल आए थे। उनने कहा था- 'इंडियन एयरफोर्स नक्सलियों को निशाना नहीं बनाएगी। एयरफोर्स सिर्फ आत्मरक्षा करेगी।' उनने यह भी कहा- 'अपने ही नागरिकों को नहीं मारेगी भारत सरकार।' यही बात केबिनेट में तय हुई। आतंकवाद कोई भी हो, कैसा भी हो। नक्सलवाद का हो या इस्लामी जेहाद। अपनी यूपीए सरकार की एक ही नीति। एक कदम आगे, दो कदम पीछे। मुंबई हमले के वक्त अपनाए तेवर भी ढीले होते अपन ने देखे। उसकी बात बाद में करेंगे। पहले बात दूतावासों पर आतंकी हमलों की। अक्टूबर 1983 का आतंकी हमला याद कराएं। बेरूत में अमेरिका दूतावास में घुस गया था ट्रक। ट्रक में 5400 क्विंटल विस्फोटक था। तीन सौ अमेरिकी मारे गए थे। पर दस-पंद्रह साल बाद फिर वही हुआ। जब केन्या और तंजानिया के अमेरिकी दूतावासों पर वैसा ही आतंकी हमला हुआ। फिर तीन सौ लोग मारे गए। सो गुरुवार की सीसीएस में शुकर ही मनाया गया। काबुल के ताजा हमले में एक भारतीय नहीं मरा। यों तो सत्रह लोग मरे। पर सभी अफगानी ही। आईटीबीपी के तीन जवान जख्मी जरूर हुए। पर निशाना तो भारतीय दूतावास ही था। यह बात अमेरिका और ब्रिटेन ने भी मानी। दोनों देशों ने भारत से सहानुभूति जताई। यों सहानुभूति तो पाकिस्तान ने भी जताई। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अब्दुल बासित बोले- 'हमलावर भारत-पाक-अफगानिस्तान में शांति विरोधी।' पूछा- 'क्या भारत-पाक रिश्तों में नया तनाव नहीं होगा?' तो वह बोले- 'सरकारों को आतंकियों की हरकतों पर ध्यान नहीं देना चाहिए।' पर बात फिर वहीं पर आकर खड़ी होगी। अपन आईएसआई पर शक क्यों न करें। अपन तो तालिबानों के खिलाफ लड़ भी नहीं रहे। आईएसआई की खुन्नस अपन ने ऊपर बताई ही। ताजा खुन्नस की वजह भी समझना मुश्किल नहीं। पाक में आजकल अमेरिकी आर्थिक मदद पर शर्तों की चर्चा। एक शर्त तो पाकिस्तानी सेना और आईएसआई पर नकेल की। आईएसआई का आतंकी चेहरा भी अब छुपा नहीं। इससे खुन्नस खाई बैठी है आईएसआई। आईएसआई की हताशा किसी और पर नहीं निकलती। आसान निशाना अपन ही।

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