तीस साल में पहली बार लेफ्ट का चेहरा बेनकाब हुआ

Publsihed: 30.Dec.2006, 20:45

साल 2006 की सबसे बड़ी घटना यह है कि वामपंथी दलों ने बंगाल को लेकर देश भर में जो गलतफहमी फैलाई हुई थी, वह खुद उनके कुकर्मो से बेनकाब हो गई। वामपंथी विरोधी दल जब यह कहते थे कि बंगाल में वामपंथियों ने सच्चे लोकतंत्र की हत्या कर दी है और संगठित ढंग से चुनावों में धांधली करके वामपंथी दल सत्ता पर काबिज हैं तो यह बात किसी के समझ में नहीं आती थी। कांग्रेस को नेस्तनाबूद करके वामपंथियों ने अपने पैर जमाए थे और भाजपा को कभी बंगाल में घुसने का मौका ही नहीं मिला। वामपंथी एक बार काबिज हो गए तो उसके बाद उन्होंने जैसे सभी राजनीतिक दलों के लिए 'नो-एंट्री' का बोर्ड लगा दिया। समाज के हर क्षेत्र में वामपंथियों ने पांव जमा लिए और कोई भी संस्था ऐसी नहीं रही, जिस पर वामपंथी दलों का कबजा न हुआ हो।

बंगाल को रोलमॉडल बनाकर वामपंथी दलों ने देश भर में सामाजिक क्षेत्र में प्रवेश की सफल कोशिश की, यह बात अलग है कि उसे चुनावी मैदान में भुना नहीं पाए। जैसे आप कलाकारों का क्षेत्र लें, शिक्षकों का क्षेत्र लें, इतिहासकारों का क्षेत्र लें, महिला आंदोलन का क्षेत्र लें, विश्वविद्यालय छात्र यूनियनों का क्षेत्र लें, या फिर भले ही मेधा पाटेकर का विकास विरोधी आंदोलनकारियों का जमावड़ा हो या खुद को सेक्युलरवादी कहकर भाजपा के खिलाफ अभियान चलाने वाला तीस्ता सीतलवाड़ का 'कम्बैट कम्युनलिज्म मोर्चा', सब जगह वामपंथी विचारधारा की अलग-अलग दुकानें दिखाई देंगी। पश्चिम बंगाल में बुध्ददेव भट्टाचार्य ने ज्योति बसु की विकास विरोधी धारा को बदलकर वामपंथियों को नया चेहरा देने का प्रयास किया तो वहां सिर्फ ममता बनर्जी ही नहीं, अलबत्ता मेधा पाटेकर जैसे विकास विरोधी वामपंथी हस्तियों को मैदान में कूदना पड़ा। टाटा के छोटी और सस्ती कार बनाने के कारखाने को दी गई जमीन ने वामपंथियों की पोल खोलकर रख दी। वामपंथियों का अंदरुनी टकराव खुलकर सामने आ गया। पुराने वामपंथियों ने इस बात पर कड़ा एतराज किया कि जब तीस साल तक बिना विकास किए ज्योति बसु बंगाल में लाल झंडा फहराने में कामयाब रहें तो उस नीति को बदलने की क्या जरुरत थी। बिना खुद को वामपंथी बताए देश भर में वामपंथियों के एजंडे पर काम करने वाली मेधा पाटेकर के लिए यह संकट की घड़ी थी, अगर वह बंगाल में जाकर किसानों के पक्ष में मोर्चा न खोलती तो खुद बेनकाब होती, क्योंकि मेधा पाटेकर हों या तीस्ता सीतलवाड़ हर किसी को गुजरात में मोर्चा खोलते हुए देखा गया था। मेधा पाटेकर ने अगर अपनी विकास विरोधी मुहिम को आगे बढ़ाने के लिए नर्मदा विरोधी आंदोलन चलाया तो तीस्ता सीतलवाड़ ने गुजरात के दंगों को आधार बनाकर नरेंद्र मोदी के खिलाफ मोर्चा खोला। बेस्ट बेकरी कांड में तीस्ता सीतलवाड़ की दिलचस्पी जाहिरा शेख के प्रभावित परिवार को इंसाफ दिलाने में नहीं थी, अलबत्ता नरेंद्र मोदी और भाजपा के खिलाफ मोर्चा खोलने की थी। हालांकि केरल के विधानसभा चुनाव में वामपंथी दलों ने जब कोयंबटूर की जेल में बंद आतंकवादी अबदुल नासिर मदनी को रिहा करवाने का अभियान छेड़ा और हाल ही में केरल के एक उपचुनाव में वामपंथी दलों की ओर से सांप्रदायिक कार्ड खेला गया तो तीस्ता सीतलवाड़ को 'कम्बैट कम्युनलिज्म' भूल गया। लेकिन तारीफ करनी पड़ेगी मेधा पाटेकर की, जिन्होंने अपनी वामपंथी वफादारी को दरकिनार करके सिंगूर में किसानों के पक्ष में मोर्चा खोलकर वामपंथी चेहरे को बेनकाब किया। ममता बनर्जी पिछले एक दशक से वामपंथियों को बेनकाब करने की कोशिशों में जुटी हुई थी। जब उन्होंने देखा कि कांग्रेस गंभीरता से वामपंथियों से लोहा लेने को तैयार नहीं तो उन्होंने नरसिंह राव के मंत्रिमंडल से इस्तीफा देकर अकेले ही मोर्चा खोला। तबसे वह दो बार चुनाव हार चुकी हैं, दोनों ही बार कांग्रेस ने वामपंथियों को हराने के लिए ममता बनर्जी का साथ नहीं दिया, अलबता अपनी विचारधारा से दूर होने के बावजूद ममता बनर्जी को भाजपा का साथ मिला। हालांकि ममता बनर्जी बार-बार अस्थिर दिमाग की साबित हुई और सोनिया गांधी इसी का फायदा उठाते हुए दो बार उन्हें अपने पाले में लाने में कामयाब रही। सोनिया गांधी के इसी चातुर्य के कारण बंगाल में ममता बनर्जी की वामपंथी विरोधी जंग की विश्वसनीयता कटघरे में खड़ी हुई। हाल ही में गनी खान चौधरी के देहांत के बाद सोनिया गांधी ने एक बार फिर अपने चातुर्य से ममता बनर्जी को साथ मिलाकर उनकी छवि का मटियामेट किया। लेकिन टाटा के कारखाने के मुद्दे पर ममता बनर्जी ने जोरदार आंदोलन छेड़कर अपनी अब तक की खराब हुई छवि को दुबारा प्रदेश में निखारने में सफलता हासिल की है। ममता बनर्जी ने जब सिंगूर में किसानों की जमीन जबरदस्ती अधिग्रहित किए जाने का मामला उठाकर आंदोलन शुरु किया तो वामपंथियों के समर्थक विजुअल मीडिया ने उनके आंदोलन की धार भोंथरी करने के लिए किसानों की जमीन अधिग्रहित किए जाने की खबरों को झूठा बताना शुरु कर दिया। प्रिंट मीडिया के वामपंथी पत्रकारों ने भी किसानों के साथ हुए अन्याय को दबाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन ममता बनर्जी ने आमरण अनशन जैसा कदम उठाकर वामपंथी दलों की तीस साल से झूठ के रेत पर खड़े महल को नेस्तनाबूद करने में जबरदस्त सफलता हासिल की है। शुरु में ऐसा लगता था कि ममता बनर्जी जल्द ही आमरण अनशन खत्म करके अपनी रही-सही साख भी खत्म कर देंगी। लेकिन ममता बनर्जी ने तीन बार राज्यपाल को बैरंग लौटाया, मुख्यमंत्री बुध्ददेव भट्टाचार्य की तीन चिट्ठियों पर तवाो नहीं दी, लोकसभा स्पीकर सोमनाथ चटर्जी की ओर से की गई अपील को भी ठुकराया और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की चिट्ठी पर भी तवाो नहीं दी। जहां तक आखिरी दो महानुभावों का सवाल है तो दोनों का ममता के बारे में नजरिया कौन नहीं जानता। सोमनाथ चटर्जी ने पूर्वाग्रह से प्रभावित होकर सदन में ममता बनर्जी की निंदा का प्रस्ताव पास करवाया था और मनमोहन सिंह ने जिस दिन चिट्ठी भेजी उसी दिन बुध्ददेव भट्टाचार्य के टाटा कारखाने संबंधी कदम की तारीफ की। अगर ममता बनर्जी आमरण अनशन पर अड़ी न रहती तो यह बात कभी सामने नहीं आती कि बंगाल सरकार ने सिंगूर की उपजाऊ जमीन तंग राजनीतिक नजरिए के कारण किसानों का शोषण करके रतन टाटा को सौंपने की साजिश रची थी। वहां ममता बनर्जी का प्रभाव था और उसके प्रभाव को खत्म करने के लिए उपजाऊ जमीन टाटा को सौंपने का फैसला किया और किसानों के विरोध के बावजूद उनकी महंगी जमीन कौड़ियों के भाव अधिग्रहित की गई, जो वामपंथी पूरे देश में एसईजेड का विरोध करते हुए किसानों के मुद्दे पर आंदोलन की धमकी देते हैं, खुद उन्होंने बंगाल में क्या किया, इसे ममता बनर्जी ने बेनकाब करके रख दिया। मीडिया के वामपंथी तत्व भी पूरी तरह बेनकाब हो गए और पहली बार ऐसा हुआ कि मीडिया अपने वामपंथी आकाओं की रक्षा नहीं कर पाया। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और खासकर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की पहल के कारण ममता बनर्जी की जान बच सकी, वरना छब्बीसवां दिन खतरनाक साबित हो सकता था। ममता बनर्जी को यह भी श्रेय जाएगा कि उन्होंने चार वामपंथी दलों के मोर्चे के अंदरुनी मतभेदों को सामने लाने में सफलता हासिल की, वरना खुद के ज्यादा प्रभाव की दादागिरी जमाते हुए माकपा बाकी वामपंथी दलों की हर जायज बात को अनसुनी कर देती थी। सिंगूर में किसानों की जमीन अधिग्रहित किए जाने से भाकपा, आरएसपी और फारवर्ड ब्लाक भी खफा थे, लेकिन खुलकर कुछ बोलने को तैयार नहीं थे। ममता बनर्जी भले ही पिछले चुनाव में चुनाव आयोग के निष्पक्ष चुनावों के प्रयासों के बावजूद बड़ा प्रभाव नहीं दिखा पाईं थी, लेकिन उनके इस आंदोलन ने उनकी जमीन इतनी मजबूत कर दी है कि अब वामपंथियों के सामने बड़ी चुनौती खड़ी हो गई है।

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