परमाणु समझौता, मुशर्रफ फार्मूला और हमारे हित

Publsihed: 23.Dec.2006, 20:40

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बहुत तेज दौड़ रहे हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति बुश से परमाणु ईंधन समझौते के बाद उन्होंने पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ से ले-देकर कश्मीर का मसला सुलझाने की कवायद शुरू कर दी है। लेकिन इतना तेज दौड़ते हुए क्या वह भारत के स्वाभिमान की रक्षा कायम रख सकेंगे, जिसे जवाहरलाल नेहरू से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक सबने कायम रखा। मनमोहन सिंह ने अमेरिका के साथ परमाणु ऊर्जा ईंधन का समझौता करने की सारी औपचारिकताएं पूरी कर दी हैं और उन्हें दंभ है कि उन्होंने परमाणु ईंधन हासिल करने के लिए अमेरिका को अपने कानून में बदलाव करने पर मजबूर किया, जबकि अटल बिहारी वाजपेयी तो सीटीबीटी पर दस्तखत करने को तैयार हो गए थे।

मनमोहन सिंह का सीटीबीटी पर दस्तखत करने की अटल बिहारी वाजपेयी की तैयारी का दावा स्ट्रा टालबोट की किताब पर आधारित है। लेकिन इसी किताब का वह पन्ना मनमोहन सिंह ने या तो जानबूझकर पढ़ा नहीं, या उसे पढ़कर भी देश की जनता को बताना नहीं चाहते, जिसमें उन्होंने यह भी लिखा है कि जसवंत सिंह ने सीटीबीटी पर दस्तखत करने का वादा किया था, लेकिन बाद में उन्होंने इस बात के लिए खेद जताया था कि वह इस वादे को निभा नहीं पाए। स्वाभाविक है कि जसवंत सिंह अपने वादे को इसलिए नहीं निभा पाए क्योंकि तबके प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी उसके लिए तैयार नहीं हुए होंगे। यह सब जानते हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने छह साल के शासनकाल में सीना तानकर अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों का मुकाबला किया और भारत को परमाणु शक्ति संपन्न देश घोषित करवाने व संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थाई सीट हासिल करवाने के लिए हरसंभव कोशिश की। लेकिन मनमोहन सिंह ने जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी के जमाने से चली आ रही इन दोनों कोशिशों को दरकिनार करके परमाणु ऊर्जा ईंधन हासिल करने पर सारा जोर लगा दिया है, जबकि देश पिछले 30 साल से यूरेनियम के लिए अपने पैरों पर खड़ा होने की कोशिश में जुटा हुआ था और काफी हद तक सफलता पा ली थी। हमारे पूर्वोत्तर में यूरेनियम के भंडार हैं और वहां अंतरराष्ट्रीय ताकतें आदिवासियों को यूरेनियम की खुदाई करने के खिलाफ भड़का कर भारत को आत्मनिर्भर बनने से रोक रही हैं। मनमोहन सिंह को अमेरिका से यूरेनियम हासिल करने की बजाए इस बात का पता लगवाना चाहिए था कि पूर्वोत्तर में कौन सी अंतरराष्ट्रीय शक्तियां काम कर रही हैं। मनमोहन सिंह देश की जनता के सामने भारत के परमाणु कार्यक्रम के कारण पैदा हुई 30 साल की अंतरराष्ट्रीय पाबंदियों को खारिज करवा कर परमाणु ऊर्जा ईंधन हासिल करने के लिए अमेरिका का कानून बदलवाने का ढोल पीट रहे हैं। लेकिन वह यह नहीं बता रहे कि परमाणु समझौते की आधारशिला कहां रखी गई थी, और क्यों रखी गई थी। असल में 2005 के शुरुआत में मास्को में बुश और मनमोहन सिंह की मुलाकात हुई थी, इस मुलाकात में दोनों नेताओं ने भारत और अमेरिका में व्यापारिक रिश्ते बढ़ाने के क्षेत्र ढूंढने के लिए दोनों देशों के व्यापारियों का एक गुट बनाना तय किया था। इस गुट में मनमोहन सिंह और बुश ने किस-किस को तैनात किया था, यह किसी को नहीं पता, लेकिन यह तय है कि इसी गुट ने भारत-अमेरिका परमाणु ऊर्जा ईंधन का व्यापार बढ़ाने का सुझाव दिया। असल में अमेरिका में परमाणु ईंधन यूरेनियम का भंडार है और 1964 के बाद वहां परमाणु ऊर्जा के लिए कोई नया रिएक्टर नहीं लगा। सीटीबीटी के कारण कई देशों पर परमाणु ईंधन का आयात करने की पाबंदी लगी हुई है और उसका व्यापारिक खामियाजा अमेरिका को भुगतना पड़ रहा है। इसीलिए यह रास्ता निकाला गया कि भारत का पैसा कैसे अमेरिका के खजाने में पहुंच सके। यूपीए सरकार भले ही बांछें खिलाकर घूम रही हो, लेकिन परमाणु समझौता भारत के हित में कम, अमेरिका के हित में ज्यादा है। यह 2000 लाख करोड़ रुपए का व्यापार है और अमेरिका मालोमाल हो जाएगा। इसके लिए भारत को जो खामियाजा भुगतना पड़ा है, उसका कोई जिक्र नहीं कर रहा। वैज्ञानिकों की 30 साल की मेहनत से हम परमाणु संपन्न देश बने और उसकी मान्यता हासिल किए बिना हमने अमेरिका का परमाणु ऊर्जा ईंधन हासिल करने के लिए अपने परमाणु कार्यक्रम को हमेशा-हमेशा के लिए खत्म करने के बीज बो लिए हैं। भारत के वैज्ञानिक इसीलिए 'हैनरी हाइड एक्ट' की शर्तों के तहत परमाणु ऊर्जा ईंधन समझौते का विरोध कर रहे हैं। ईरान और भारत में फर्क यह है कि ईरान ने सीटीबीटी पर दस्तखत किए हैं, लेकिन उसके पास परमाणु क्षमता नहीं है, वह सीटीबीटी पर दस्तखत करने के बाद गुपचुप तरीके से परमाणु क्षमता हासिल करने की कोशिश कर रहा है। बुश ने मनमोहन सिंह को परमाणु ऊर्जा ईंधन का लालच देकर भारत के परमाणु कार्यक्रम को ठप्प कराने में सफलता हासिल कर ली है, और यही लालच राष्ट्रपति बुश ईरान को दे रहे थे, जिसे ईरान के राष्ट्रपति अहमदी नेजाद ने नहीं माना, लेकिन भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मान लिया। स्ट्रा टालबोट लंबे समय से जसवंत सिंह को इसी के लिए राजी करने की कोशिश में जुटे हुए थे, वे दो लक्ष्य हासिल करना चाहते थे, अमेरिका का यूरेनियम बिकने का रास्ता खुल जाए और भारत अपना परमाणु कार्यक्रम रद्द कर दे। विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी ने राज्यसभा में भरोसा दिया है कि जरूरत पड़ने पर भारत परमाणु परीक्षण करने के लिए स्वतंत्र है। हालांकि प्रणव मुखर्जी के इस दावे में कोई दम नहीं लगता क्योंकि अमेरिका ने जो 'हैनरी हाइड एक्ट' पास किया है, उसमें साफ शर्त लिखी है कि अगर भारत परमाणु कार्यक्रम जारी रखता है तो न सिर्फ अमेरिका परमाणु ऊर्जा ईंधन की सप्लाई बंद कर देता अलबत्ता सारे रिएक्टर और ईंधन भारत को वापस करना होगा। अमेरिका ने ईंधन की रिप्रोसेसिंग पर भी पाबंदी लगाई है। सरकार की दलील है कि अमेरिकी कानून की पाबंदियां भारत पर लागू नहीं होंगी, लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश इसी कानून के तहत 1954 के परमाणु एक्ट की धारा वन टू थ्री में भारत को परमाणु ऊर्जा ईंधन का समझौता करेंगे। परमाणु ऊर्जा समझौता अमेरिका के 1954 के परमाणु एक्ट के तहत ही होगा, जिसमें सीटीबीटी पर दस्तखत किए बिना किसी देश को परमाणु ईंधन की सप्लाई नहीं हो सकती। इसी कानून में छूट देने के लिए 'हैनरी हाइड एक्ट' बना है, लेकिन अमेरिकी कांग्रेस ने छूट की शर्तें तय की हैं। पता नहीं राष्ट्रपति बुश की तरह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और प्रणव मुखर्जी कैसे कह रहे हैं कि ये सब शर्तें बाध्यकारी नहीं हैं। और छह-आठ महीनों में यह भी पता चल जाएगा, जब वन टू थ्री के तहत समझौते की बातचीत शुरू होगी। माकपा नेता सीताराम येचुरी का मानना है कि यह समझौता होगा ही नहीं, क्योंकि राष्ट्रपति बुश 'हैनरी हाइड एक्ट' से बंधे हैं और मनमोहन सिंह संसद को दिए गए वायदे से, और दोनों ही एक-दूसरे के विपरीत हैं। लेकिन यह चमत्कार हो भी गया तो भारत को परमाणु संपन्न देश घोषित करवाने और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थाई सीट पाने का सपना तो टूट ही गया है।

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