परमाणु समझौता कहीं गले की फांस न बने

Publsihed: 16.Dec.2006, 20:40

शुक्रवार को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जापान के प्रधानमंत्री शिंजो एबे के साथ मुलाकात के दौरान परमाणु ईंधन सप्लाई करने वाले देशों की बैठक में भारत को परमाणु ऊर्जा ईंधन सप्लाई करने की बाबत होने वाले फैसले में सहयोग मांगा। हालांकि शिंजो ने फौरी तौर पर कोई भरोसा नहीं दिया है, न ही जापान से परमाणु ऊर्जा ईंधन की सप्लाई का कोई भरोसा दिया है, लेकिन प्रधानमंत्री की ओर से परमाणु ऊर्जा ईंधन के मुद्दे पर बात किए जाने से एक बात साफ हो गई है कि संसद में अमेरिकी कानून की कितनी भी मुखालफत की जाए, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अमेरिका के साथ वन टू थ्री समझौता करने का फैसला कर लिया है।

अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) की बैठक में अमेरिकी दबाव में जब ईरान के खिलाफ वोटिंग पर विवाद खड़ा हुआ था, तो वामपंथी दलों ने इसका कड़ा विरोध किया था और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वामदलों की कोई परवाह नहीं की थी। पहले और दूसरे दौर में ईरान के खिलाफ वोट देकर मनमोहन सिंह सरकार ने स्पष्ट कर दिया था कि वह परमाणु ऊर्जा ईंधन के लिए अमेरिका के हर इशारे का पालन करेगी। अब अमेरिकी कानून में कई नुक्ते भारतीय हितों के खिलाफ होने के बावजूद मनमोहन सरकार ने उसी कानून के तहत परमाणु ईंधन के लिए अमेरिका के साथ वन टू थ्री समझौता करने का फैसला कर लिया है। इस बारे में देश की संसद को पूरी तरह अंधेरे में रखा गया है, सरकार की तरफ से संसद में इस तरह का स्पष्ट बयान नहीं दिया गया कि सरकार को अमेरिकी सीनेट और अमेरिकी कांग्रेस की ओर से पास किया गया कानून मंजूर है और उसके तहत अब आगे समझौता करने का फैसला कर लिया गया है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 17 अगस्त 2006 को विभिन्न राजनीतिक दलों की ओर से उठाई गई आशंकाओं का जवाब देते हुए संसद से वादा किया था कि अगर अमेरिकी कानून में कुछ भी ऐसी बात हुई जो 18 जुलाई 2005 और दो मार्च 2006 के भारत-अमेरिका साझा बयानों के अनुरूप न हुई, तो भारत परमाणु ऊर्जा ईंधन समझौते पर पुनर्विचार करने के लिए स्वतंत्र होगा। बारह दिसंबर 2006 को विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी ने संसद में कबूल किया है कि अमेरिकी सीनेट और अमेरिकी कांग्रेस की ओर से 8-9 दिसंबर को पास किए गए कानून में ऐसी कई असंगत बातें हैं और ऐसे कई आदेशात्मक प्रावधान हैं जो भारत को कबूल नहीं हैं और ऐसे प्रावधान 18 जुलाई 2005 के साझा बयान से मेल नहीं खाते। प्रणव मुखर्जी ने यह भी एलान किया था कि भारत की विदेश नीति को कोई भी देश प्रभावित नहीं कर सकता और न ही इसे कबूल किया जाएगा। प्रणव मुखर्जी ने यह भी वादा किया था कि भारत अपने सामरिक कार्यक्रमों (परमाणु संयंत्रों) की निगरानी करने की इजाजत नहीं देगा और न ही इन संयंत्रों में कोई विदेशी हस्तक्षेप मंजूर किया जाएगा। प्रणव मुखर्जी ने यह बात प्रधानमंत्री की ओर से संसद में किए गए वायदे के मुताबिक कही थी। स्वाभाविक है कि प्रणव मुखर्जी के बयान की ये कुछ तीखी बातें सिर्फ इसलिए स्पष्ट हुई क्योंकि अमेरिकी कानून में ये शर्तें लगाई गई हैं। पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह ने अमेरिकी कानून में तीन खोट निकाले हैं, एक अन्य पूर्व विदेश मंत्री यशवंत सिन्हा ने दो खोट निकाले हैं और माकपा ने छह खोट निकाले हैं। माकपा मूल रूप से अमेरिका के खिलाफ है, इसलिए माकपा के मीन-मेख तब तक इतना महत्व नहीं रखते, जब तक उनका सरोकार राष्ट्रीय हितों से न हो। लेकिन इन राजनीतिक दलों के मीन-मेखों को मैं इतना महत्व नहीं देता, जितना भारतीय परमाणु कार्यक्रमों से जुड़े वैज्ञानिकों की ओर से उठाई जा रही आशंकाओं को देता हूं। ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इन वैज्ञानिकों की आशंकाओं की भी अनदेखी कर दी है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह देश के सारे ढांचे को ध्वस्त करने में लगे हुए हैं। पाठकों को याद होगा कि नवंबर 2006 में पुलिस और सुरक्षा बल प्रमुखों की दिल्ली में हुई तीन दिवसीय बैठक में आईबी प्रमुख ने आतंकवादियों से निपटने के लिए कारगर कानून की मांग की थी। लेकिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इससे साफ इनकार कर दिया। इससे पहले सेना में मुसलमानों की गिनती करवाने के मामले में भी तीनों सेनाओं के प्रमुखों ने जब सार्वजनिक तौर पर विरोध किया तो सरकार ने सच्चर कमेटी को यह सांप्रदायिक काम करने से रोका था, जबकि इससे पहले प्रणव मुखर्जी संसद में भी सच्चर कमेटी के इस काम की पैरवी कर रहे थे। अब अमेरिका के साथ परमाणु समझौते के मामले में राष्ट्रीय हितों के खिलाफ बने अमेरिकी कानून का कोई विरोध किए जाने की बजाए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बिना देश को भरोसे में लिए समझौते में आगे बढ़ने का फैसला कर लिया है। मैं इस मुद्दे पर खास तौर पर परमाणु ऊर्जा आयोग के चेयरमैन अनिल काकोडकर की आशंकाओं का जिक्र करना चाहूंगा। अनिल काकोडकर ने उस समय भी आशंकाएं जताई थीं, जब मनमोहन सिंह राष्ट्रपति बुश के साथ साझा बयान देकर भारत लौटे थे। अमेरिकी सीनेट और कांग्रेस की ओर से नौ दिसंबर को बिल पास कर देने के बाद अनिल काकोडकर ने 13 दिसंबर को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मुलाकात की और उन्हें कानून में रखे गए कुछ प्रावधानों से भारतीय हितों की अनदेखी होने की आशंका जताई। उनकी सबसे बड़ी आशंका यह है कि भारत को अपना परमाणु कार्यक्रम रद्द करना पड़ेगा और यह समझौता एनपीटी और सीटीबीटी पर दस्तखत करने से भी बुरा होगा। लेकिन प्रधानमंत्री ने परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष की आशंका को भी दरकिनार करके इस मामले में आगे बढ़ने का फैसला किया है। हालांकि अनिल काकोडकर ने 15 दिसंबर को खुलासा किया है कि उन्हें प्रधानमंत्री ने यह आश्वासन दिया था कि वन टू थ्री समझौता करने से पहले सभी पक्षों को भरोसे में लिया जाएगा और हर पहलू पर विचार किया जाएगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की ओर से राष्ट्रीय सुरक्षा के हितों की अनदेखी किए जाने पर देश के छह प्रमुख वैज्ञानिकों ने बैठक करके अपनी चिंताएं जगजाहिर करने की रणनीति बनाना शुरू कर दिया है। ये वही छह वैज्ञानिक हैं जिन्होंने अगस्त 2006 में प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर अपनी चिंताओं से अवगत करवाया था। ये छह वैज्ञानिक हैं डा. होमी सेठना, डा. पीके आयंगर (दोनों परमाणु ऊर्जा आयोग के पूर्व अध्यक्ष), डा. .एन. प्रसाद (बीएआरसी के पूर्व अध्यक्ष और अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी की इराक गई निरीक्षण टीम के सदस्य), डा. . गोपालकृष्णन (परमाणु ऊर्जा नियामक बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष), डा. प्लेसिड रोड्रिक्स (इंदिरा गांधी परमाणु अनुसंधान कलपक्कम के पूर्व निदेशक) और डा. एम.आर. श्रीनिवासन (परमाणु ऊर्जा आयोग के पूर्व अध्यक्ष और आयोग के मौजूदा सदस्य)। मुझे आशंका है कि ये वैज्ञानिक भी तीनों सेनाओं के अध्यक्षों और आईबी प्रमुख की तरह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कोई चेतावनी दे देंगे।

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