सद्दाम को फांसी से पहले बुश का बंटाधार

Publsihed: 11.Nov.2006, 20:45

अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डबलयू बुश ने 2003 में इराक पर हमला करने के बाद अपने देश में भारी विरोध के बावजूद जब दूसरी बार राष्ट्रपति पद का चुनाव जीत लिया था, तो ऐसा लगता था कि रिपबिलकन पार्टी का दबदबा राष्ट्रपति पद पर अगले चुनाव तक रहेगा। लेकिन जॉर्ज बुश की दूसरी आधी अवधि भी अभी पूरी नहीं हुई कि अमेरिकी कांग्रेस और सीनेट दोनों में रिपबिलकन पार्टी को हार का मुंह देखना पड़ा है। कानून बनाने वाले इन दोनों ही सदनों में जॉर्ज बुश और उनकी रिपबिलकन पार्टी का कबजा नहीं रहा, अलबता दोनों ही जगह डेमोक्रेट्स का बहुमत हो गया है। डेमोक्रेट्स पार्टी के बिल क्लिंटन जब तक राष्ट्रपति रहे, खूब लोकप्रिय रहे। लेकिन जैसे ही उनका दूसरा कार्यकाल खत्म हुआ, डेमोक्रेट्स अपने नए उम्मीदवार को विजय नहीं दिला पाए।

हालांकि पिछले छह सालों में डेमोक्रेट्स ने बिल क्लिंटन की पत्नी हिलेरी क्लिंटन को भावी राष्ट्रपति के लिए पूरी तरह तैयार कर लिया है। अमेरिकी कांग्रेस के चुनाव में लगातार दूसरी बार जीत हासिल करके हिलेरी क्लिंटन ने जॉर्ज बुश के बाद राष्ट्रपति पद पर अपनी दावेदारी मजबूत कर ली है। बिल क्लिंटन के साथ राजग सरकार के बेहतरीन रिश्ते थे और जब वह राष्ट्रपति के तौर पर भारत आए थे, तो संसद के सेंट्रल हॉल में उनके भाषण के बाद सांसदों का उनसे हाथ मिलाने के लिए भगदड़ मचाना उनकी लोकप्रियता का सबूत था। राष्ट्रपति बुश के साथ संबंध बनाने में मनमोहन सिंह काफी हद तक सफल रहे, इसी वजह से वह परमाणु ईधन समझौता हो पाया, जो जसवंत-टालबोट में हुई कई दौर की बातचीत में भी संभव नहीं हुआ था। इसकी एक वजह तो यह भी हो सकती है कि वाजपेयी सरकार परमाणु कार्यक्रम पर किसी तरह का सौदा करने को तैयार नहीं थी, जबकि मनमोहन सिंह ने परमाणु ईधन के लिए ललचाई भरी नजर से देखकर देश को परमाणु संपन्न राष्ट्र का दर्जा दिलवाने की सारी मुहिम को खटाई में डालने पर सहमति दे दी। दूसरी वजह यह है कि डेमोक्रेट्स और रिपबिलकन पार्टी के नेताओं की कार्यशैली में जमीन आसमान का फर्क है। जब नरसिंह राव प्रधानमंत्री थे, तो उस समय आबिद हुसैन अमेरिका में भारत के राजदूत थे, उधर अमेरिका में डेमोक्रेट्स की जीत हुई, इधर आबिद हुसैन अपना कार्यकाल पूरा करके दिल्ली लौटे। नरसिंह राव ने दिल्ली लौटने पर आबिद हुसैन को बुलाकर अमेरिकी सत्ता में आए परिवर्तन से अमेरिका की भारतीय नीति में बदलाव की संभावनाओं के बारे में पूछताछ की। आबिद हुसैन ने तब नरसिंह राव को बताया था कि अमेरिका की नीति में कोई खास फर्क नहीं आएगा, फर्क सिर्फ इतना होगा कि डेमोक्रेट्स के सत्ता में रहते समय दोनों देशों के संबंधों पर अच्छे सेमिनार किए जा सकते हैं, जबकि रिपबिलकन पार्टी के सता में रहने पर कई तरह के समझौते किए जा सकते हैं। आबिद हुसैन की राय थी कि डेमोक्रेट्स भारत के साथ ऐसे समझौते नहीं करेंगे, जिससे भारत को फायदा हो, अलबता वे संबंध सुधारने के सेमिनारों में ज्यादा दिलचस्पी लेंगे। अब रिपबिलकन पार्टी के जॉर्ज बुश ऐसे समय पर दोनों सदनों में कमजोर हुए हैं, जब उनका भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ हुआ परमाणु समझौता दांव पर लगा है। जब दोनों सदनों में रिपबिलकन पार्टी का बहुमत था, तब भी बुश के लिए परमाणु समझौते को लागू करने के लिए अमेरिकी कानून में फेरबदल करवाना मुश्किल हो गया था, अब तो और ज्यादा मुश्किल होगा। हालांकि डेमोके्रट्स ने ठीक आबिद हुसैन के कथन के मुताबिक शुरूआती बयान समझौते को लागू करवाने के लिए सहयोग का दिया है, लेकिन आशंका यह है कि डेमोक्रेट्स भारत को परमाणु ऊर्जा ईधन और रिएक्टर देने की इतनी शर्तें लगा देंगे कि भारत के लिए उन्हें मानना मुश्किल हो जाएगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भारतीय संसद को कई बार आश्वासन दिया है कि उनकी सरकार ऐसी बेजा शर्तों को नहीं मानेगी, जो 18 जुलाई 2005 के समझौते से जरा भी इधर-उधर हो। लेकिन इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता कि डेमोक्रेट्स ने ही भारत को परमाणु ऊर्जा ईंधन देने के लिए अमेरिकी कानून में संशोधन वाले बिल में कई कड़ी शर्तें जुड़वा दी हैं। राष्ट्रपति बुश प्रधानमंत्री मनमोहन को बार बार भरोसा दिलवाते रहे हैं कि बिल जब कानून की शक्ल लेगा, तो वह 18 जुलाई 2005 के समझौते के अनुरूप ही होगा। लेकिन अब बदले हालात में बुश के लिए यह कर पाना खाला जी का घर नहीं। निश्चित रूप से इन चुनावों से राष्ट्रपति बुश बेहद कमजोर हुए हैं, हालांकि चुनावों से ठीक पहले इराक के अपदस्थ राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को फांसी की सजा का फैसला करवाकर बुश उसका चुनावी फायदा उठाना चाहते थे, लेकिन हुआ ठीक इसके उलट है। अमेरिकी जनता को इराक पर जो फैसला दो साल पहले राष्ट्रपति पद के चुनाव के समय सुनाना चाहिए था, वह उसने सद्दाम हुसैन को फांसी पर लटकाए जाने की खबर के बाद सुनाया। अब यह तय है कि अमेरिकी जनता ने खूब सोच समझकर यह फैसला किया हैं। अमेरिका में यह धारणा बन गई है कि राष्ट्रपति बुश की नीतियों के कारण न सिर्फ अमेरिका बल्कि दुनिया ज्यादा असुरक्षित हुई है। अमेरिका ने आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई को ईसाई और मुस्लिम संस्कृतियों की लड़ाई बनाकर दुनिया को दो हिस्सों में बांट दिया है। भारत के परमाणु समझौते के भविष्य पर तो सवाल उठ ही रहे हैं, अब दुनिया के सामने इससे भी अहम सवाल यह है कि सद्दाम हुसैन को फांसी होगी या नहीं। रिपबिलकन पार्टी के भविष्य को बचाने के लिए क्या राष्ट्रपति बुश अमेरिकी जनता की भावनाओं की कदर करते हुए सद्दाम हुसैन की फांसी रूकवाने का पैंतरा चल सकते हैं ? हालांकि इराकी कानून के मुताबिक फांसी की सजा देने के तीस दिन के अंदर उसकी अदालती समीक्षा हो जाती है और पचास दिन के अंदर आर या पार हो जाता है। इस हिसाब से दिसम्बर में सद्दाम हुसैन को फांसी होनी चाहिए, लेकिन समीक्षा के समय फैसला पलट सकता है और कुर्दों की हत्या का दूसरा मामला लंबित होने के कारण कानूनी दांवपेंच से भी सद्दाम हुसैन की फांसी लटकाई जा सकती है। अगर ऐसा होता है, तो यह अच्छा ही होगा, क्योंकि इससे दुनिया भर में ईसाइयों और मुसलमानों में शुरू हुई संस्कृतियों की जंग थम सकती है। शिया मुसलमानों को छोड़कर आमतौर पर भारत में सद्दाम हुसैन को फांसी दिए जाने के खिलाफ सभी राजनीतिक दलों और धार्मिक संस्थाओं में मोटे तौर पर सहमति है। सद्दाम हुसैन दुनिया के उन गिने चुने व्यक्तियों में से एक थे, जिन्होंने बाबरी ढांचा टूटने पर कहा था कि उसे बाबर ने मंदिर तुड़वाकर बनवाया था। सद्दाम हुसैन के इस बयान से दुनियाभर के मुसलमान इतने भड़के थे कि उन्हें काफिर घोषित कर दिया था।

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