भारतीय सड़कों पर वीआईपी आतंक

Publsihed: 04.Nov.2006, 20:40

राजस्थान हाईकोर्ट ने वीआईपी मूवमेंट के दौरान जनता को होने वाली परेशानी पर एक अहम फैसला सुनाया है। पर हाईकोर्ट के इस फैसले पर कितना अमल हो पाएगा, मुझे आशंका है। हू--हू ऐसा ही फैसला पहले दिल्ली हाईकोर्ट भी दे चुकी है। लेकिन दिल्ली में वीवीआईपी मूवमेंट के समय ट्रैफिक जाम करने की पुलिस की ढींगामुश्ती खत्म नहीं हुई। वाजपेयी जब प्रधानमंत्री थे, तो उन्होंने इस मामले में कुछ नियम बनाए थे। इन नियमों के मुताबिक सिर्फ एक तरफ का टै्रफिक रोका जाता था, जबकि दूसरी तरफ का टै्रफिक चलता रहता था। लेकिन यूपीए सरकार आने के बाद जनता पर नेताओं और पुलिस की मिलीजुली ढींगामुश्ती फिर शुरू हो गई। वीआईपी सुरक्षा की वजह से आम जनता को जो परेशानी झेलनी पड़ती है, उसका कोई जवाब नहीं।

देश की राजधानी दिल्ली में सुरक्षा की वजह से लोगों को ज्यादा परेशानी होती है। एक बार सुझाव आया था कि राष्ट्रपति भवन में ही प्रधानमंत्री आवास भी बना दिया जाए, ताकि सुरक्षा का तामझाम थोड़ा सा तो कम हो। ऐसा होने पर दिल्ली के वीआईपी इलाके की सारी सड़कों को काफी हद तक निजात मिल जाती। लेकिन यह सुझाव इसलिए ठुकरा दिया, क्योंकि इससे राष्ट्रपति की छत्रछाया में प्रधानमंत्री का रूतबा कम दिखता। अहम आड़े आ रहा था। राजीव गांधी जब प्रधानमंत्री थे, तो वेद मारवाह को सिर्फ इसलिए पुलिस कमीश्र पद से हटा दिया गया था, क्योंकि उनकी कार उसी रास्ते पर आ गई थी, जहां से राजीव गांधी का काफिला गुजरने वाला था। पुराने लोग जानते हैं, जवाहर लाल नेहरू तीन मूर्ति में रहा करते थे और प्रधानमंत्री होते हुए कई बार पीएमओ और संसद भवन तक पैदल आते थे। चीन ने जब भारत पर हमला किया। इस वाक्या के लिए वामपंथी माफ करें, जिनकी नजर में चीन ने नहीं, भारत ने हमला किया था। उस समय अगर अमेरिका मदद पर न आता, तो भारत का अच्छा खासा भू-भाग चीन के कबजे में होता। हालांकि अमेरिका के मदद पर आने में भी बहुत देर हो गई थी और जवाहर लाल नेहरू की लापरवाही के कारण देश अच्छा खासा खामियाजा भुगत चुका था। अमेरिका के मदद के आने के कारण ही चीन ने एकतरफा युद्धविराम घोषित कर दिया था। युद्ध समाप्ति के बाद अमेरिका के राष्ट्रपति डी ईजनऑवर भारत आए, तो प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू उन्हें पैदल ही कनॉट प्लेस लेकर गए थे। दोनों का जब रामलीला मैदान में स्वागत होना था, तो रास्ते में लोगों ने नेहरू को घेर लिया था, जिस पर नेहरू और डी ईजनऑवर आम लोगों से हाथ मिलाते हुए काफी दूर तक पैदल चलते रामलीला मैदान पहुंचे थे। उन दिनों पंडित गोविंद सिंह नाम के एक सब इंस्पेक्टर जवाहर लाल नेहरू के सुरक्षा अधिकारी थे। आज दिल्ली पुलिस का आईजी स्तर का अधिकारी प्रधानमंत्री का सुरक्षा अधिकारी होता है और एसपीजी का घेरा अलग से। इसके बावजूद नेताआें की सुरक्षा के कारण आम लोगों को मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। यह बात सही है कि दुनिया भर में आतंकवाद के कारण वीआईपी की सुरक्षा के मापदंड बदल गए हैं। लेकिन भारत में यह स्थिति इंदिरा गांधी के शासनकाल में इमरजेंसी में ही शुरू हो गई थी। क्योंकि इंदिरा गांधी ने देश की आजादी को कुचल दिया था, इसलिए वह डरी हुई थी और अपनी सुरक्षा व्यवस्था बढ़ा ली थी। यह बात सही है कि इमरजेंसी के कारण किसी ने उन्हें गोली का निशाना नहीं बनाया, लोकतंत्र के समर्थकों ने अपनी लड़ाई लोकतांत्रिक ढंग से ही लड़ी। लेकिन पंजाब में आतंकवाद के कारण फौज ने स्वर्ण मंदिर पर हमला किया, तो उन्हीं के दो सिख सुरक्षाकर्मियों ने उन्हें गोली से उड़ा दिया। इसके बाद तो वीआईपी का सुरक्षाचक्र मजबूत दर मजबूत होता चला गया। असल में भारतीय सुरक्षा एजेंसियों को आतंकवाद से लड़ने की टे्रनिंग ही नहीं दी गई। सुरक्षा एजेंसियों के अनटे्रंड होने का खामियाजा आम आदमी को भुगतना पड़ता है। वे सुरक्षा का ठीक से बंदोबस्त नहीं कर सकते, इसलिए सारा टै्रफिक ही रोक देते हैं। कुछ मामलों में हमारी पुलिस और अन्य सुरक्षाबल बाबा आदम जमाने के अनाड़ी साबित होते हैं। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ 2002 में जब मैं साइप्रस, इंगलैंड और डेनमार्क गया था, तो तीनों जगह पर वहां के प्रधानमंत्रियों के साथ प्रेस कांफ्रेंसों में शामिल होने का मौका मिला। न तो किसी ने मोबाइल फोन ले जाने पर एतराज किया, न ही स्वीच ऑफ और ऑन करने की कोई हिदायत दी। जबकि वहां से लौटने के बाद तब के उप प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी के साथ अंडमान निकोबार गया, तो वहां राजभवन में मोबाइल नहीं ले जाने दिया गया। सुरक्षा एजेंसियों के अप्रशिक्षित होने का खामियाजा आम जनता को भुगतना पड़ता है। जवाहर लाल नेहरू जब प्रधानमंत्री थे, तो हर दो घंटे बाद अपने घर के लॉन में लोगों को मिलने आते थे, लेकिन कुछ महीने पहले राजस्थान की दो युवतियां अपने एक मित्र के साथ कार चलाते हुए प्रधानमंत्री के दर्शन करने की इच्छा मन में संजोए प्रधानमंत्री के घर के सामने क्या पहुंच गए, उन्हें जेल की हवा खानी पड़ी। मनमोहन सिंह की जान के उतने दुश्मन नहीं होंगे, जितने वाजपेयी की जान के दुश्मन थे। लेकिन हो उल्टा रहा है, वाजपेयी के समय सुरक्षाकर्मी इतने भयभीत नहीं थे, जितने मनमोहन सिंह के समय हैं। मनमोहन सिंह से सिर्फ वही लोग घृणा करते हैं, जो दो-दो, तीन-तीन दशक से कांग्रेस में रहकर भी प्रधानमंत्री नहीं बन पाए। लेकिन उन सभी का गांधीगिरी में भरोसा हैं, इसलिए सुरक्षाकर्मियों को इतना भयभीत नहीं होना चाहिए। एहतियात बरतना जरूरी है, लेकिन इतना भी नहीं कि कोई विदेशी प्रधानमंत्री घर के पास मौजूद जिमखाना से दूरबीन के जरिए नजारा देख रहा हो, तो उसे गिरफ्तारी कर लिया जाए। पूर्व सेना अधिकारी के एक विदेशी दामाद को जिमखाना से इसलिए हिरासत में ले लिया गया था, क्योंकि वह दूरबीन से प्रधानमंत्री आवास को निहार रहा था। अभी तिरूवनंतपुरम में एक कार चालक से मामूली गलती क्या हो गई, उसे गिरफ्तार कर लिया गया। हाल ही में दिल्ली के एक कॉलेज के लेक्चरर को भी इसीलिए गिरफ्तार कर लिया था, क्योंकि वह गलती से उस रास्ते पर आ गया था, जहां से मनमोहन सिंह गुजरने वाले थे। सुरक्षाकर्मियों की अपनी लापरवाही के कारण आम आदमी को खामियाजा भुगतना पड़ता हैं और नेताओं का अहम भी इस टै्रफिक जाम की एक वजह है। जिस पर कोई कानून कायदा तो लागू होना ही चाहिए। वरना देश को आजाद कौन कहेगा और आम नागरिकों को आजादी का एहसास कैसे होगा। टै्रफिक जाम करने की यह फितरत फिरंगी मानसिकता ही है।

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