कूटनीति की किरकिरी

Publsihed: 07.Oct.2006, 20:40

अगर नेपाल के साथ भारत की प्रत्यार्पण संधि नहीं होती है तो मनमोहन सरकार कूटनीति के मामले में आजादी के इतिहास के बाद देश की सबसे नकारा साबित होगी। अगर नेपाल के साथ प्रत्यार्पण संधि होगी तो नक्सलवादियों का वहां हिंसा फैलाकर भारत में आकर खुले घूमना और भारत में हिंसा फैलाकर नेपाल में भाग जाना बंद हो जाएगा। मनमोहन सरकार को समर्थन दे रही दोनों वामपंथी पार्टियां ऐसा नहीं चाहती, इसलिए उनके दबाव में नेपाल के गृह मंत्री कृष्ण प्रसाद सितौला का आखिरी समय में प्रत्यार्पण संधि के लिए भारत आना टला। चीन सरकार और भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों के षडयंत्र के तहत नेपाल पहले ही अपना हिंदू राष्ट्र का दर्जा खत्म करके खुद को सेक्युलर देश घोषित कर चुका है, हालांकि अपने पड़ोसी देश नेपाल में हुआ यह घटनाक्रम कूटनीति के लिहाज से बिलकुल ठीक नहीं है, लेकिन वामपंथियों के दबाव में मनमोहन सरकार चुप्पी साधकर बैठी रही।

जिसके नतीजे आज दिखने लगे हैं, नेपाल की मौजूदा सरकार में माओवादियों का प्रभाव होने के कारण ही प्रत्यार्पण संधि पर ब्रेक लग गई। माओवादियों ने नेपाल में अपना मकसद हासिल कर लिया है और अब उनके निशाने पर भारत के सीमांत राज्य हैं। इस षडयंत्र में नेपाल के साथ-साथ चीन भी शामिल है और दोनों सरकारों को भारत के दोनों वामपंथी दलों का खुला समर्थन है। जिस तरह कम्युनिस्ट पार्टियों ने केरल में पोत बनाने के मामले में चीन की एक फर्म को ठेका देने के लिए पैरवी की है, उससे इन दोनों दलों पर चीन परस्त होने का शक फिर पैदा हो गया है। आखिर कम्युनिस्ट पार्टियों को चीन या किसी भी और देश की पैरवी करने की क्या जरुरत थी। एनडीए सरकार के समय जब यह खुलासा हुआ था कि कुछ सांसद विमानों की खरीददारी के लिए किसी खास देश की पैरवी कर रहे हैं तो उसे अत्यंत गंभीरता से लिया गया था। यूपीए सरकार के समय भी जब रेणुका चौधरी ने एक विदेशी फर्म की पैरवी करते हुए सिफारिशी चिट्ठी लिखी थी, तो बवाल खडा हो गया था और रेणुका चौधरी को माफी मांगनी पड़ी थी। लेकिन कोई राजनीतिक दल सारी मर्यादा और परंपरा को ताक पर रखकर विदेशी कंपनियों की इस तरह पैरवी करने लगे, तो देश का क्या होगा। राजनीतिक दल विदेशी कंपनियों के दलाल बन जाएंगे, तो देश की सारी लोकतांत्रिक व्यवस्था चरमरा जाएगी। वामपंथियों के माओवादियों और चीन सरकार और वहां की कंपनियों से संबंधों के चलते यूपीए सरकार को संभल-संभल कर कदम उठाना होगा। लेकिन मनमोहन सिंह इस मामले में न सिर्फ अनाड़ी अलबता दब्बू भी साबित हो रहे हैं। हालांकि नटवर सिंह भले ही बेहतरीन विदेश मंत्री नहीं थे, लेकिन मौजूदा व्यवस्था से तो बेहतर ही थे। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पिछले एक साल में अपने ही कंधों पर विदेश मंत्रालय का बोझ ढोकर कूटनीति के मामले में देश को कंगाल सा बना दिया है। मनमोहन सिंह को राजनीति नहीं आती, यह तो वह खुद कबूल कर चुके हैं, लेकिन यह तो कोई अनाड़ी भी समझ लेगा कि जिसे राजनीति नहीं आती, वह निश्चित रुप से कूटनीति में तो पैदल ही होगा। यह देश का दुर्भाग्य कहा जाएगा कि मनमोहन सिंह को न अच्छा गृह मंत्री मिला, न अच्छा विदेश मंत्री मिला, न अच्छा कृषि मंत्री मिला और यह देश फिर भी चल रहा है। यह अलग बात है कि देश की दिशा प्रेशर ग्रुप तय कर रहे हैं, जो किसी भी देश के लिए ठीक नहीं। देश के अंदर भी प्रेशर ग्रुप नीतियों और फैसलों को प्रभावित कर रहे हैं और देश के बाहर भी ऐसे ही प्रेशर ग्रुप कूटनीति को प्रभावित कर रहे हैं। आजादी के बाद ऐसी लच्चर व्यवस्था पहले कभी नहीं थी। सरकार चलना अलग बात है, लेकिन सरकार का ठीक से चलना और हर चीज पर नियंत्रण होना अलग बात। महंगाई काबू नहीं आ रही, खाद्यान्न का अकाल पड़ गया है, आतंकवाद ने अपनी बांहे फैलाना शुरु कर दिया है, मुस्लिम कट्टरपंथी सरकार पर हावी हो गए हैं और अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भारत की किरकिरी हो रही है। सिर्फ नेपाल ही क्यों, अमेरिका के साथ परमाणु समझौते और पाकिस्तान के साथ आतंकवाद के मुद्दे पर साझा मेकेनिज्म मनमोहन सिंह की दो बडी ग़लतियां सामने आ रही है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अभी आश्वस्त नहीं हैं कि उनका अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश से किया गया परमाणु समझौता सिरे चढ़ेगा या नहीं। लेकिन मनमोहन सिंह ने देश के लिए बिना कुछ हासिल किए अमेरिका को भारत के परमाणु संयंत्रों का सारा कच्चा चिट्ठा सौंप दिया है। अगर परमाणु समझौता कामयाब नहीं होता और भारत को परमाणु ईंधन नहीं मिलता तो भारत की ओर से अमेरिका को दी गई परमाणु संयंत्रों की जानकारी मनमोहन सिंह की ऐतिहासिक गलती साबित होगी। परवेज मुशर्रफ के साथ आतंकवाद के खिलाफ साझा मेकेनिज्म पर भी मनमोहन सिंह अब आश्वस्त नहीं हैं। कुछ ही दिन के बाद अब उन्होंने यह बोलना शुरु कर दिया है कि इस मुद्दे पर पाकिस्तान का इम्तिहान होगा। ताजा गलती शशि थरूर को संयुक्त राष्ट्र के महासचिव पद का उम्मीदवार बनाने की थी। जिस समय शशि थरूर को उम्मीदवार बनाया गया उस समय मैंने यह लिखा था कि यह कूटनीतिक गलती है क्योंकि जब भारत सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता की दावेदारी कर रहा है तो उसे महासचिव पद की दावेदारी करनी ही नहीं चाहिए। यह कैसे हो सकता है कि भारत संयुक्त राष्ट्र महासचिव पद पर दावा ठोके और उसके बाद सुरक्षा परिषद की सदस्यता भी मांगे। दोनों चीजें साथ-साथ नहीं चल सकती। संयुक्त राष्ट्र के नियम के मुताबिक ही सुरक्षा परिषद के स्थाई सदस्य देश महासचिव पद के दावेदार नहीं हो सकते। महासचिव पद पर अपना उम्मीदवार खड़ा करना सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता की दावेदारी छोड़ना था। यह तो अच्छा ही हुआ कि अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को करारा झटका देते हुए दक्षिण कोरिया के उम्मीदवार बून का समर्थन कर दिया। हालांकि इसका कोई फायदा मिलने की मुझे कोई उम्मीद नहीं दिखती क्योंकि सुरक्षा परिषद की सदस्यता की जितनी जोरदार ढंग से पैरवी की जानी चाहिए थी, उतनी नहीं हो रही। मनमोहन सिंह से सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता की जोरदार पैरवी की कोई उम्मीद भी नहीं दिखती। अगर इसी वजह से मनमोहन सिंह ने शशि थरूर को महासचिव पद का उम्मीदवार बनाया था तो उन्हें पहले होमवर्क कर लेना चाहिए था, कूटनीतिक कदम बिना आकलन के नहीं उठाए जाते। अगर कोई समझदार विदेश मंत्री होता तो मनमोहन सिंह को बिना होमवर्क के महासचिव पद के लिए उम्मीदवार खड़ा करने की सलाह नहीं देता। मनमोहन सिंह को चाहिए था कि वह सुरक्षा परिषद के पांचों स्थाई सदस्यों से पहले बात करते, फिर उम्मीदवार खड़ा करते। जब किसी भी एक स्थाई सदस्य की वीटो पावर उम्मीदवार रुखसत कर सकती है, तो भारत जैसा कोई भी बुध्दिमान विशाल देश उन पांचों देशों से गारंटी लेने के बाद ही उम्मीदवार खड़ा करता। इस मामले में शशि थरूर की किरकिरी नहीं हुई अलबता मनमोहन सिंह की किरकिरी हुई है और मनमोहन सिंह की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किरकिरी का मतलब है भारत की किरकिरी।

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