बाबरी रपट : बीजेपी की कंगाली में आटा गीला

Publsihed: 30.Jun.2009, 20:39

तो अपन ने इक्कीस मई को क्या लिखा था- 'कांग्रेस इस बार हिसाब चुकता करेगी। आडवाणी-मोदी को चार्जशीट का इरादा। आडवाणी पर लिब्राहन आयोग की मार पड़ेगी। मोदी पर सुप्रीम कोर्ट जांच बिठा चुकी।' तो अपनी भविष्यवाणी के सिर्फ इकतालिसवें दिन आ गई रिपोर्ट। साढ़े सोलह साल लगे लिब्राहन आयोग को। छह दिसंबर 1992 को बाबरी ढांचा टूटा। सोलह दिसंबर को आयोग बना। तीन महीने का वक्त था। आयोग ने लगाए 198 महीने। वाजपेयी चाहते तो बार-बार अवधि बढ़ाने की मांग ठुकरा देते। अपने यहां एक बार जो आयोग का चेयरमैन बन जाए। फिर जांच तो उसी के हिसाब से पूरी होगी। जस्टिस लिब्राहन साढ़े सोलह साल सुप्रीम कोर्ट के जज नहीं रहे। पर साढ़े सोलह साल आयोग के चेयरमैन रह गए।

केबिनेट दर्जा। केबिनेट मंत्री जैसा दफ्तर-घर। नौकर-चाकर स्टाफ। नरसिंह राव तो चाहते ही नहीं थे- उनके पीएम रहते रिपोर्ट आए। पर उनने यह नहीं सोचा था- रिपोर्ट तब आएगी, जब वह रहेंगे ही नहीं। देवगौड़ा-गुजराल की क्या मजाल थी। जो अवधि बढ़ाने से इनकार करते। वाजपेयी ने आयोग का दफ्तर सिर्फ विज्ञान भवन से हटाया। तो कितना बावेला हुआ था। वाजपेयी लोकलाज में वक्त बढ़ाते रहे। यूपीए सरकार आई। तो रोकने वाला था ही कौन। लालू-पासवान ने जरूर चौथे साल टोकना शुरू किया। तब संसद में सरकार को वादा करना पड़ा- 'अब और अवधि नहीं बढ़ाएंगे।' खैर शुकर मनाइए रिपोर्ट आ गई। आभार जताइए जस्टिस लिब्राहन का। लगते हाथों अपन आयोगों के काम का तरीका बताते जाएं। ज्यादा दूर नहीं जाएंगे। बात चौरासी के दंगों की। राजीव गांधी ने पीएम बनते ही नवंबर 84 में बनाया- 'रंगनाथ मिश्र आयोग।' रंगनाथ मिश्र की अगस्त 86 में आई लीपापोती रिपोर्ट। बाद में रंगनाथ कांग्रेस के राज्यसभा एमपी हो गए। तो जमकर बवाल हुआ। वाजपेयी ने नए सिरे से 8 मई 2000 को बनाया- 'नानावती आयोग।' नानावती ने भी पांच साल लगाए। रिपोर्ट आई- 5 फरवरी 2005 को। यूपीए सरकार आ चुकी थी। पहले तो रिपोर्ट खारिज हुई। पर सिखों का विरोध शुरू हुआ। तो सज्जन कुमार को दिल्ली सरकार के सलाहकार पद से हटाया। जगदीश टाइटलर को मंत्री पद से। इस चुनाव में जूता प्रकरण ने दोनों का टिकट भी कटवाया। यह सब हुआ- नानावटी की रिपोर्ट के बूते। अब बात राजीव हत्याकांड की। जैन आयोग बना था- 21 अगस्त 1991 को। रिपोर्ट आई सात साल बाद 7 मार्च 1998 को। इस बीच अंतरिम रिपोर्ट ने नवंबर 97 में गुजराल सरकार गिरा दी। पर लिब्राहन आयोग ने तो कमाल किया। दसवीं लोकसभा में बना था। पंद्रहवीं लोकसभा में रिपोर्ट पेश होगी। सरकार के आठ करोड़ रुपए खर्च हुए। रिपोर्ट अभी किसी ने नहीं देखी। पर राजनीति गर्म हो गई। जस्टिस लिब्राहन ने कहा- 'कुछ लोगों ने गवाही में देरी की। इसलिए टाईम लगा।' पर एक सवाल तो उठेगा। गवाहियां तो 2005 में खत्म हो गई थी। चार साल रिपोर्ट लिखने में क्यों लगे। पर बात राजनीति की। जिसकी शुरुआत खुद लिब्राहन के बयान से हुई। दिग्विजय सिंह ने मिर्च-मसाला लगाते हुए कहा है- 'सब जानते हैं मस्जिद भाजपा ने गिराई थी। आडवाणी-जोशी-उमा की भूमिका कौन नहीं जानता।' रविशंकर प्रसाद को तो साजिश की बू आनी ही थी। अपन को तो पहले से आडवाणी को फंसाने का अंदेशा था। जो अपन ने 21 मई को जाहिर किया। खतरा भाजपाइयों को भी। सो आडवाणी के घर जेतली-सुषमा पहुंचे। कल से शुरू पार्लियामेंट के दौरान में अब यही बड़ा मुद्दा। पर देखने वाली बात होगी- रिपोर्ट में कल्याण सिंह की भूमिका। कल्याण के बहाने अब गिरेगी मुलायम पर बिजली। पर सबसे बड़े संकट में होगी बीजेपी। क्या लिब्राहन आयोग बीजेपी को हिंदुत्व पर लौटा देगा। उमा भारती ने तो ताल ठोक कर कह दिया- 'चाहती नहीं थी ढ़ांचा टूटे। पर जो हुआ ठीक हुआ। चाहो तो फांसी पर लटका दो।' पर क्या बीजेपी अपना पाएगी ऐसे तेवर। चुनावी हार से पहले ही दुविधा में फंसी है बीजेपी। कंगाली में आटा गीला वाली बात हुई।

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