मालेगांव से सबक लें मुसलमान

Publsihed: 09.Sep.2006, 20:40

अटल बिहारी वाजपेयी ने एक बार कहा था- 'फटा हुआ बम अपने शिकार का धर्म या जाति नहीं पूछता।' मालेगांव में हुए बम धमाकों से यह बात सही साबित हो गई। इससे पहले आतंकवादी सिर्फ उन्हीं जगहों को निशाना बनाते थे, जहां हिंदू बहुल आबादी हो। पहली बार ऐसा हुआ है कि बम ऐसी जगह पर फटे हैं जो मुस्लिम बहुल आबादी वाला क्षेत्र है। हालांकि इस घटना के फौरन बाद किसी भी नतीजे पर पहुंचना नादानी होगा, लेकिन देश के गृहमंत्री शिवराज पाटिल और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख ने कई घंटों की समीक्षा और गुप्तचर एजेंसियों से मिली रिपोर्ट के बाद आतंकवादियों की वारदात कहकर उन अफवाहों को निराधार कर दिया, जिन्हें फैलाकर हिंदुओं के खिलाफ जहर उगलने की शुरुआत हो चुकी थी।

ये अफवाहें आतंकवादियों का मकसद पूरा करने के लिए ही फैलाई जा रही थी। आतंकवादियों का मकसद वंदे मातरम से शुरू हुई हिंदू-मुस्लिम की खाई को और बढ़ाना हो सकता है। अभी कह नहीं सकते कि यूपीए सरकार के रेल मंत्री लालू यादव इस घटना पर क्या रुख अख्तियार करेंगे। कम से कम मुझे यह आशंका है कि वह गोधरा ट्रेन पर हुए हमले को हादसा करार देने जैसा ही कोई स्टैंड ले सकते हैं। मालेगांव की घटना के बाद भी पुलिस और सीबीआई की जांच के साथ-साथ एक न्यायिक आयोग बैठ जाएगा और नतीजा लालू यादव के दबाव में गोधरा जैसा भी आ सकता है। ऐसी आशंका मैं इसलिए जाहिर कर रहा हूं, क्योंकि सरकारों का काम अब सच पर टिके रहना नहीं रहा, अलबता मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए किसी भी हद तक जाना हो गया है। चाहे आप वंदे मातरम की घटना लें या इजराइल की ओर से लेबनान पर किए गए हमले की घटना। इजराइल ने लेबनान पर इसलिए हमला किया था क्योंकि वहां के आतंकवादी संगठन हिजबुल्ला ने इजराइल के दो फौजियों का अपहरण कर लिया था। इंसाफ का तकाजा यह था कि पूरी दुनिया लेबनान पर दबाव डालती कि वह हिजबुल्ला पर प्रतिबंध लगाए और उसके सफाए का अभियान शुरू करे। लेकिन हुआ इसका उलटा, जैसे पाकिस्तान की सरकार और वहां की गुप्तचर एजेंसी आईएसआई मुस्लिम कट्टरपंथी आतंकवादियों को भारत में आतंकवाद फैलाने के लिए 'लोजिस्टिक सपोर्ट' मुहैया करवा रही है, बिलकुल वैसे ही लेबनान की सरकार हिजबुल्ला को 'लोजिस्टिक सपोर्ट' दे रही है। लेकिन इसके उलट भारत के मुस्लिम कट्टरपंथियों और वोट के सौदागर सेक्युलर दलों के दबाव में यूपीए सरकार ने संसद के दोनों सदनों में इजराइल के खिलाफ एक प्रस्ताव पास किया। सिर्फ इतना ही काफी नहीं, अब जब संयुक्त राष्ट्र ने वहां शांति सेना भेजी है और इजराइल के कबजे वाले लेबनानी क्षेत्र को हिजबुल्ला आतंकवादियों से मुक्त करवाने के लिए शांति सेना से अभियान शुरू करवाने का फैसला किया है, तो मनमोहन सिंह सरकार ने संयुक्त राष्ट्र को धमकी दी है कि अगर ऐसा हुआ तो भारत अपने सैनिकों को वापस बुला लेगा। इन सब बातों से समझ नहीं आता कि भारत आतंकवाद के खिलाफ है या पक्ष में। मौजूदा सरकार को पहले यह तय कर लेना चाहिए कि वह आतंकवाद और आतंकवादियों के खिलाफ है या उनके पक्ष में। इसी तरह की एक और घटना बताना भी जरूरी होगा जिससे मौजूदा सरकार के आतंकवाद से लड़ने और आतंकवादियों की शिनाख्त करने की इच्छाशक्ति पर शक पैदा होता है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पांच सितंबर को आतंकवाद और नक्सलवाद के मुद्दे पर पहली बार मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाई। यह संतोष की बात थी, क्योंकि पिछले सवा दो सालों में इन दोनों मुद्दों पर मनमोहन सरकार बेपरवाह लंबी तानकर सोई हुई थी। लेकिन इस बैठक में भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का मकसद मुस्लिम तुष्टिकरण का रहा। उन्होंने इसे दुर्भाग्य बताया कि आतंकवादी वारदातें एक समुदाय को निशाना बनाकर की जाती हैं, जिस कारण मुसलमान शक के दायरे में आ जाते हैं। उनका स्पष्ट यही कहना था कि आतंकवादी वारदातों में क्योंकि हिंदू निशाने पर होते हैं, इसलिए मुसलमानों को शक की निगाह से देखा जाता है। खासकर भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की तरफ इशारा करते हुए मनमोहन सिंह का कहना था कि मुसलमानों को अलग करके नहीं देखा जाना चाहिए। मनमोहन सिंह ने जिसे पांच सितंबर को दुर्भाग्य कहा था वह आठ सितंबर को संयोग में कैसे बदल गया कि पहली बार मुस्लिम बहुत इलाके में बम फटे। आने वाले समय में मनमोहन सिंह के पांच सितंबर के भाषण की भी समीक्षा होनी चाहिए कि उन्होंने यह बात संयोगवश कही थी या गुप्तचर एजेंसियों की ओर से दी गई किसी सूचना के आधार पर। लेकिन मालेगांव की घटना से भारत के मुसलमानों को सबक लेना चाहिए और अटल बिहारी वाजपेयी का कहा हुआ याद करना चाहिए कि फटने वाला बम अपने शिकार का धर्म नहीं पूछता। पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जिया उल हक ने जब भारत के खिलाफ 'आपरेशन टोपाज' की रणनीति बनाई थी, तो भारत में पहली बार पाकिस्तान की ओर से आतंकवादी वारदातें शुरू हुई थी। 'आपरेशन टोपाज' का मकसद 1971 की जंग का बदला लेना था, जिस कारण पाकिस्तान का बंटवारा हो गया था। 'आपरेशन टोपाज' के जरिए पाकिस्तान भी सिखों को भड़का कर भारत का बंटवारा करवाना चाहता था और खालिस्तान नाम से एक नया राष्ट्र बनवाना चाहता था। हिंदुओं और सिखों को लड़वाने के लिए हर हरबा इस्तेमाल किया गया। लेकिन पाकिस्तान इसके बावजूद इसलिए सफल नहीं हुआ, क्योंकि सिख हिंदुओं के खिलाफ खड़ा होने को तैयार नहीं हुए। पाकिस्तान से ट्रेनिंग लेकर आए सिख आतंकवादियों ने गुस्से में पंजाब के गांवों में सिखों की लड़कियों का ही अपहरण कर बलात्कार करने शुरू कर दिए। नतीजा इसके उलटा निकला और आम शहरी और ग्रामीण सिख आतंकवादियों के खिलाफ खड़ा हो गया। अब पाकिस्तान की आईएसआई एजेंसी की ओर से ट्रेंड किए गए गैर भारतीय मुसलमान भी हू--हू वही तरीका अपना रहे हैं। कश्मीर से गाहे--गाहे इस तरह की खबरें आती रही हैं कि आतंकवादी किस तरह मुस्लिम घरों में पनाह लेते हैं और उनकी लड़कियों से बलात्कार करते हैं। इसलिए कश्मीर में जगह-जगह पर मुसलमान इन आतंकवादियों के खिलाफ खड़े हो रहे हैं। पाकिस्तानी आतंकवादियों ने 'आपरेशन टोपाज' जैसा ही आपरेशन पूरे भारत में छेड़ दिया है और उन जगहों को अपना पनाह का केंद्र बनाया है, जो मुस्लिम बहुल हैं। जो काम 80 के दशक में पंजाब में नहीं हो सका, उसे छुटपुट उन जगहों पर सफल करने की योजना बनाई गई है, जो मुस्लिम बहुल हैं। वंदे मातरम का मुस्लिम कट्टरपंथियों की ओर से बड़े पैमाने पर विरोध करने से इन कट्टरपंथियों के हौसले बुलंद हुए हैं और उन्हें लगने लगा है कि मुसलमानों को हिंदुओं के खिलाफ भड़का कर मकसद हासिल किया जा सकता है। मुसलमानों को हिंदुओं के खिलाफ भड़काने के लिए ही मालेगांव में बड़े पैमाने पर मुसलमानों की हत्या करना रणनीति का हिस्सा हो सकता है। वंदे मातरम का विरोध करके भारत के मुसलमानों ने पाकिस्तान के आतंकवादियों को यह साफ संदेश दिया है कि वे भारतीय बाद में हैं, मुसलमान पहले हैं। बेहतर होगा कि भारत के मुसलमान उन कट्टरपंथियों को अलग-थलग कर दें, जो उन्हें ऐसा पाठ पढ़ाकर हिंदुओं के खिलाफ भड़काने की कोशिश कर रहे हैं। भारत में रह रहे मुसलमान अगर खुद को सच्चा भारतीय साबित नहीं करेंगे तो पाकिस्तान उनकी इस कमजोरी का मालेगांव जैसे हादसे करके फायदा उठाने की कोशिश करेगा।

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