क्रीमीलेयर के लिए ही बिल बनाती सरकार

Publsihed: 26.Aug.2006, 20:40

संविधान निर्माताओं ने जब अनुसूचित जाति और जनजाति को आरक्षण देने का फैसला किया, तो बहुत लंबा चौड़ा विचार विमर्श हुआ था। सांप्रदायिक आधार पर आरक्षण नहीं देने और सदियो सदियों से पिछडे दोनों समुदायों को आरक्षण का फैसला बाकी समाज में लाकर खड़ा करने की सोच का नतीजा था। सांप्रदायिक आधार पर आरक्षण नहीं देने का फैसला तो स्पष्ट है, इसलिए हुआ था, क्योंकि मुसलमानों ने अपना पाकिस्तान धार्मिक आधार पर ही बनाया था। जबकि भारत में जितने भी इसाई है, वे सभी के सभी पहले हिंदू अनुसूचित जाति और जनजाति के थे और धर्मांतरण की मुख्य वजह भी यही बताई जाती रही कि उनके साथ हिंदू समाज में बराबरी का व्यवहार नहीं होता था।

जब उन्हाेने इसाई धर्म ग्रहण करके बराबरी का हक हासिल कर लिया, तो उनका पिछड़ापन अपने आप ही दूर हो गया, इसलिए उन्हें आरक्षण देने का कोई मतलब नहीं। अनुसूचित जाति और जनजातियों के अलावा अन्य पिछड़े वर्गों के आरक्षण की मांग लंबे समय से उठती रही थी और इंदिरा गांधी ने इस पर विचार करने के लिए मंडल आयोग बनाया था। इसी मंडल आयोग की सिफारिशें बाद में देश में सामाजिक समन्वय बिगड़ने की आशंका के कारण इंदिरा गांधी ने लागू नहीं की थी। वी पी सिंह ने इसे राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया और नौकरियों में 27 फीसदी आरक्षण को लागू कर दिया। अनुसूचित जाति और जनजातियों को इससे पहले 15 फीसदी आरक्षण था और अन्य पिछड़ी जाति को 27 फीसदी आरक्षण देने के बाद 42 फीसदी नौकरियां आरक्षित हो गई और राजपूत, ब्राहम्ण व बनिए अनाराक्षित वर्ग रह गया। जाटों, जैनियों जैसे अनेकों समुदाय भी कई जगह पर अन्य पिछड़े वर्गों में हैं, तो कई जगह पर अनारक्षित वर्गों में। नौकरियों में आरक्षण के समय देश में सामाजिक तनाव बढ़ा था, लेकिन वी पी सिंह और उनके जनता दल को इसका कोई दीर्घकालीन फायदा नहीं हुआ। हालांकि कांग्रेस को मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने का बहुत नुकसान भुगतना पड़ा। मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद कांग्रेस लोकसभा में कभी भी बहुमत हासिल नहीं कर पाई। राज्यों में भी कांग्रेस का आधार 1989 से पहले जैसा नहीं रहा। देश की आम जनता इस बात को समझ चुकी थी कि कांग्रेस ने 1947 से लेकर 1989 तक के 42 सालों में से चालीस साल राज किया लेकिन अन्य पिछड़े वर्गों के साथ न्याय नहीं किया। इसलिए कांग्रेस का वह आधार मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद नहीं रहा, जैसा पहले था। अब जबकि कांग्रेस को आठ साल के बनवास के बाद सत्ता हासिल हुई है तो वह अपने राजनीतिक आधार को वापस लाने के लिए हर हरबा इस्तेमाल करने को तैयार है, भले ही उससे कितना ही सामाजिक तनाव और वैमनस्य पैदा हो। अर्जुन सिंह की ओर से अन्य पिछड़े वर्गों को उच्च शिक्षा में आरक्षण के लिए मानसून सत्र में पेश किया गया बिल इसी रणनीति का हिस्सा है। लेकिन बिल पेश करते समय राजनीतिक क्रीमी लेयर को ज्यादा से ज्यादा सहुलियतें मुहैया करवाने की कांग्रेसी शैली की तरह अन्य पिछड़े वर्गों की क्रीमी लेयर को आरक्षण की मलाई देने का फैसला किया गया है। देश में आम धारणा यह है कि जो भी व्यक्ति अपने पैरों पर खड़ा हो चुका है, उसे आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए। एक तरफ तो अनुसूचित जाति और जनजातियों के आरक्षण में भी क्रीमी लेयर को आरक्षण से अलग करने की बात उठ रही है, दूसरी तरफ पहले से संपन्न हो चुके अन्य पिछड़े वर्ग की जातियों को भी आरक्षण देने की बात शुरू हो गई है। समाज में आम धारणा है कि आजादी के बाद अनुसूचित जाति और जनजाति के कुछ परिवार ही आरक्षण का फायदा उठा रहे है, बाकी परिवार जस के तस गरीबी रेखा के नीचे हैं। जो परिवार पहले दशक में आरक्षण का फायदा उठाकर नौकरियों में पहुंच गए, उन्हीं के वंशज पढ़ लिखकर जातिय आधार पर आरक्षण के तहत नौकरियां और अन्य सहुलियतें पा रहे हैं। जबकि गांवों में रहने वाले अनुसूचित जाति जनजाति परिवार जब अपने बच्चों को नौकरियों के लिए न्यूनतम शिक्षा ही नहीं दे पाते तो नौकरियां कैसे हासिल करेंगे। इसलिए समय समय पर मांग उठती रहती है कि क्रीमी लेयर को आरक्षण से महरूम किया जाए। सरकार कम से कम अन्य पिछड़े वर्गों को आरक्षण देते समय (शिक्षा और नौकरियों दोनों) क्रीमी लेयर को इससे वंचित कर सकती है। लेकिन अन्य पिछड़े वर्गों की जाति के रानजीतिज्ञ और नौकरशाह ऐसा नहीं होने दे रहें, क्योंकि इससे उन्हीं के परिवारों को नुकसान होगा। इसलिए सरकार ने इन्हीं प्रभावशाली कुछ परिवारों के दबाव में आकर क्रीमी लेयर को भी आरक्षण देने का बिल पेश किया है। हालांकि पहले क्रीमी लेयर को आरक्षण नहीं देने का प्रावधान रखा गया था, उसका बिल भी तैयार हुआ था, उसका हिंदी में अनुवाद भी हुआ था। लेकिन कैबिनेट ने आखिरी बैठक में दक्षिण के नेताओं ने सरकार को प्रारूप बदलने के लिए मजबूर कर दिया। सरकार ने अंग्रेजी के प्रारूप में तो क्रीमी लेयर को महरूम करने का पैराग्राफ हटा दिया लेकिन हिंदी के बिल में बना हुआ है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, सरकार का इरादा क्रीमी लेयर को भी आरक्षण देने का है। लेकिन सवाल होता है कि फिर आरक्षण का फायदा किसे होगा, इस समय देश में 52 फीसदी आबादी अन्य पिछड़े वर्गों की है, लेकिन आरक्षण 27 फीसदी ही दिया जा रहा है, अगर क्रीमी लेयर को इसमें शामिल किया गया तो सारा का सारा आरक्षण क्रीमी लेयर ही चट कर जाएंगी, जिस तरह अनुसूचित जाति, जनजाति का आरक्षण अपना मकसद हासिल करने में विफल रहा, उसी तरह अन्य पिछड़े वर्गों को आरक्षण का मकसद भी विफल हो जाएगा। हू--हू वैसे ही जैसे संसद में पारित और राष्ट्रपति की ओर से हस्ताक्षर के बावजूद लाभ के पदों की राजनीतिक मलाई खा रहे क्रीमी लेयर वाले राजनीतिज्ञों को राहत नहीं मिल रही, क्योंकि एक तरफ तो सोनिया-सोमनाथ को राहत पहुंचाने वाले कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा चुकी है, तो दूसरी तरफ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वित्त मंत्री पी चिदम्बरम लाभ के पदों की मलाई खाने के आरोप में फंस गए हैं। लाभ के पदों की मलाई सिर्फ क्रीमीलेयर वाले, यानी प्रभावशाली सांसदों-विधायकों को ही मिलती हैं। लाभ के पदों की ठीक से परिभाषा करने के बजाय, बिल में पदों का नाम जोड़ने के कारण समस्या का हल नहीं निकल पा रहा। यूपीए सरकार बिल बनाने के मामले में एकदम नाकारा साबित हो रही हैं। पहले विवादास्पद लाभ के पद का बिल बना और अब उससे भी ज्यादा विवादास्पद आरक्षण का बिल।

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