न-न करते बात उन्हीं से कर बैठे

Publsihed: 17.Jun.2009, 07:57

अपन नहीं जानते मनमोहन सिंह ने पहले चुप्पी क्यों साधी। दिल्ली से रूस उड़े थे। तो पूछा था- 'क्या जरदारी से बातचीत होगी?' उनने चुप्पी साध ली। शायद मनमोहन सिंह दुविधा में थे। राष्ट्रपति के अभिभाषण में दिखाई सख्ती पर चलें। या अमेरिकी दबाव में गतिरोध तोड़ें। अमेरिकी उपविदेश मंत्री विलियम बर्न्स दस जून को भारत आए। तो उनने साफ-साफ कहा था- 'अमेरिका चाहता है भारत-पाक बातचीत शुरू हो।' तब कृष्णा ने भी कह दिया था- 'बातचीत तभी शुरू होगी। जब पाक सीमा पार से आतंकवाद रोके।'

कृष्णा के इस बयान के बाद बर्न्स-मनमोहन मुलाकात हुई। मुलाकात में एम.के. नारायणन भी मौजूद थे। नारायणन मुलाकात और बात के पक्ष में थे। येकातेरिनबर्ग में मुलाकात होगी। यह तो अपन को बारह जून को ही पता था। गुफ्तगू इतने बड़े स्तर की होगी। यह अंदाज गुफ्तगू समर्थक अफसरों को भी नहीं था। ऐसा नहीं जो मनमोहन पर दस जून को ही दबाव पड़ा। दबाव तो पुराना था। पर मनमोहन का स्टैंड था- 'पाक मुंबई हमले की जांच में गंभीरता दिखाए।' जैसी गंभीरता दिखाई। वह अपन ने दो जून को ही लिखा था। जब लाहौर हाईकोर्ट ने हाफिज सईद को रिहा किया। अपने विदेश मंत्रालय का स्टैंड था- 'पाक सरकार ने हाई कोर्ट में सबूत हीं नहीं दिए।' उस दिन मनमोहन पाक के रुख से बेहद खफा थे। गुस्से में थे। उसी दिन हाई लैवल मीटिंग बुलाई। मीटिंग में कृष्णा-नारायणन-शिवशंकर और पाक डेस्क के अफसर थे। मीटिंग के बाद कृष्णा ने कहा- 'भारत दुनिया भर से पाक पर दबाव बनाएगा।' पर कड़ा रुख अपनाकर जल्द ही नरम पड़ जाते हैं मनमोहन। अपन को भनक तो 9 जून को ही लग गई थी। जब मनमोहन ने राज्यसभा में वाजपेयी का डायलाग बोला- 'हम दोस्त बदल सकते हैं। पड़ोसी नहीं। अमेरिका जैसे देश को भी ईरान से बातचीत शुरू करनी पड़ी।' पर मनमोहन ने एक तीर से दो निशाने साधे। पहली मुलाकात में हाथ मिलाते ही कहा- 'मैं उम्मीद करता हूं पाक अपनी जमीन से भारत पर आतंकी हमले रोकेगा।' बातचीत का दरवाजा खोल उनने अमेरिका को खुश किया। तो देशवासियों को भी संदेश दिया- 'मैंने अपनी बात दो टूक और सख्ती से कह दी।' अपन को 2003 का काठमांडू सार्क सम्मेलन याद। जब वाजपेयी ने मुशर्रफ से हाथ तक नहीं मिलाया। अपन इस घटना के चश्मदीद गवाह। मुशर्रफ को मंच पर बोलने का मौका मिला। तो वह माईक छोड़ वाजपेयी से हाथ मिलाने गए थे। फिर अपन को तीन-चार जनवरी 2004 की दो रातें भी याद। जब वाजपेयी सार्क सम्मेलन में इस्लामाबाद गए। पर न मुलाकात को तैयार हुए, न बात को। वाजपेयी ने मुशर्रफ के नाक रगड़ा कर पांच जनवरी को बात की। बात के बाद भी बृजेश मिश्र पांच की रात नहीं सोए। अपन भी इस्लामाबाद में उस रात खबर की खाक छानते रहे। छह जनवरी तड़के मुशर्रफ लिखित बयान में यह डालने को राजी हुए- 'आतंकवादियों को भारत के खिलाफ सर-जमीं-पाक इस्तेमाल नहीं करने देंगे।' पर यह कभी रुका नहीं। मुशर्रफ ने 2006 में यही वादा मनमोहन से भी क्यूबा में दोहराया। पर पाक की जमीं से अपने खिलाफ आतंकवाद जारी। ताजा घटना मुंबई हमले की। जिसके अपन ढेरों सबूत दे चुके। पर जरदारी सरकार हर सबूत में मीन-मेख निकालने पर आमादा। मनमोहन ने पहली गलती क्यूबा में की। जब उनने कहा- 'भारत-पाक दोनों आतंकवाद के शिकार।' अब यही बात मंगलवार को कुरेशी ने येकातेरिवर्ग में कही। उनने कहा- 'आतंकवाद से हम दानों को मिलकर लड़ना होगा।' पर कैसे? जब पाक हाफिज सईद को आतंकवादी ही न मानें। अपन समझने में गलती न करें। पाक में आतंकवाद की जड़ें अफगानिस्तान में। भारत में आतंकवाद की जड़ें पाकिस्तान में। अपने खिलाफ आतंकवाद को वहां की सरकार का समर्थन। वहां के प्रशासन का समर्थन। वहां की मिलिट्री का समर्थन। वहां की कोर्ट का समर्थन। मिलकर आतंकवाद से कैसे लड़ेंगे। कभी कश्मीर की दुहाई। कभी मिलकर लड़ने की बात। पर बात चुप्पी और ना नुकर की। मनमोहन ने चुप्पी साधी। पर बारह जून को पी. शिवशंकर ने कहा था- 'दोनों एक कमरे में होंगे। एक छत के नीचे होंगे। हाथ मिलाएंगे-बात होगी। पर बातचीत किस किस्म की होगी। नहीं कह सकते।' अपन नहीं जानते- यह ना-नुकर क्यों थी। यह लुक्का छिपी क्यों थी।

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