बीजेपी की महाभारत अभी तो शुरू ही हुई है

Publsihed: 13.Jun.2009, 00:16

जो खुद जीत नहीं सकता। बेटे को जिता नहीं सकता। दूसरी जमीन पर दूसरों की दया से जीते। वह जब युवा चेहरे पर आपत्ति उठाए। तो बीजेपी में हड़कंप मचना ही था। बीजेपी में अब चारों तरफ घमासान। कर्नाटक से लेकर दिल्ली तक। येदुरप्पा के खिलाफ पहले अनंत कुमार लठ्ठ लिए घूमते थे। अब बारी ईश्वरप्पा की। ईश्वरप्पा ने येदुरप्पा के खिलाफ मोर्चा खोल लिया। सेंट्रल हाल में अपन ने अनंत कुमार को इतना खुश पहले नहीं देखा। जितना इस बार सेशन के दौरान दिखे। कांग्रेस क्यों फायदा उठाने से चूके। सो कांग्रेस के चुनावी रणनीतिकार जयराम रमेश मैदान में। उनने बेल्लारी पर निगाह टिका ली। बेल्लारी बनी है बीजेपी की दूध देने वाली गाय।

आपने तिरुपति में 45 करोड़ के मुकुट वाली खबर तो देखी होगी। मुकुट चढ़ाया है कर्नाटक के मंत्री जनार्दन रेड्डी ने। रेड्डी परिवार का बेल्लारी की लौह खदानों पर कब्जा। इस बार रेड्डी परिवार से बीजेपी के तीन एमएलए। उनमें दो मंत्री। सो कांग्रेस ही नहीं। येदुरप्पा विरोधी भाजपाईयों की आंख की भी किरकिरी। इंचार्ज अरुण जेटली हफ्तेभर से समझाईश में लगे थे। पर बात बनती नहीं दिखी। तो खुद बेंगलुरु गए। येदुरप्पा का जलवा तो दो बार सिर चढ़कर बोला। फिर भी बगावती नहीं माने। तो जिस टहनी पर बैठे, उसी को काटने वाली बात होगी। पर कर्नाटक से ज्यादा बात दिल्ली की। आडवाणी के प्रमुख रणनीतिकार थे सुधींद्र कुलकर्णी। पार्टी में कुछ नहीं। पर चुनाव में पार्टी का 'फेस' बनकर घूमते रहे। राजनाथ सिंह क्यों एतराज करते। चैनलों पर उतने जेटली नहीं दिखे। जितने कुलकर्णी। कुलकर्णी ने पहले आडवाणी को जिन्ना प्रकरण में फंसाया। अब जब जिंदगी का सबसे बड़ा दांव था। तो इंटरनेट रणनीति से पिटवाया। बाराक ओबामा स्टाईल रणनीति पिटनी ही थी। तो अब गधे का गुस्सा कुम्हार वाली बात। कुलकर्णी ने संघ-वरुण-मोदी की खामियां निकालनी शुरू कर दी। उनने हार की पड़ताल से पहले लेख लिख मारा। चुप बैठे आडवाणी विरोधियों को अब मौका मिला। आप शुक्रवार को आए राजीव प्रताप रूढ़ी का बयान ही देखिए। उनने कहा- 'जो प्रमुख रणनीतिकार थे। अचानक पत्रकार बन गए।' अपन बता दें- सुधींद्र के लेख ने बीजेपी में हड़कंप मचा दिया। अब निशाने पर आडवाणी भी। आखिर वही दूध पिला रहे थे। आप बीजेपी की खामोशी पर मत जाइए। अंदर ही अंदर उबल रहे लावे को भांपिए। एक हैं- अनिल चावला। दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद का ट्रांस्लेशन- 'मोनिस्टिक ह्यूमनिज्म' उनने किया। यानी संघ-जनसंघ-बीजेपी के पुराने वर्कर। आईआईटी में कुलकर्णी के क्लासमेट थे। उनने सारा दोष आडवाणी के मत्थे मढ़ा। कुलकर्णी के नाम लिखी चिट्ठी 'एलके एण्ड हिज गैंग' में उनने कहा- 'आप तो फुल टाईम कम्युनिस्ट वर्कर थे। अचानक बीजेपी की टाप लीडरशिप में कैसे घुस गए। मैं तो तीस साल से बीजेपी में बिना पद के।' बकौल चावला- बीजेपी का बंटाधार होना ही था। पार्टी दो खेमों में बंट चुकी। आडवाणी समर्थक और आडवाणी विरोधी। कुलकर्णी के बवाल में अब नया मोड़ जसवंत की चिट्ठी का। जसवंत की खुन्नस आडवाणी-जेटली के नेता बनने पर। शायद जसवंत सोचते होंगे- 'राज्यसभा नहीं, तो लोकसभा के नेता बनेंगे।' यों बीजेपी की हार में कंधार की भूमिका कम नहीं। फिर भी उनने संसद के दफ्तर में पांच जून तक विपक्ष के नेता की तख्ती लटकाए रखी। पर आडवाणी तो कोर कमेटी के दबाव में ही नेता बने। कोर कमेटी के मेंबर जसवंत भी। सो जसवंत की चुनौती कोर कमेटी के फैसले पर। फिर संसदीय पार्टी ने आडवाणी को दूसरा हक दिया- 'राज्यसभा का नेता तैनात करने का।' जो उनने जेटली को किया। यानी जसवंत की दूसरी चुनौती पार्लियामेंट्री पार्टी को। पर बात जेटली की। वह कहां बनना चाहते थे नेता। उनकी तो लाखों की प्रेक्टिस मारी गई। घर वाले और खफा। पर आप पार्टी में चल रहे घमासान को समझिए। सुधींद्र, जसवंत के बाद बृजेश मिश्र ने भी चुनावी खामियों पर मुंह खोला। अब तक चुप्पी साधे बैठे थे बृजेश। उनने एटमी करार पर पलटी मार ली थी। तब से बीजेपी से कुट्टी। अनिल चावला ने जो बात खुलकर कही। वही बृजेश ने दबी जुबान से। चुनाव में वाजपेयी को भुलाने की भूल। वाजपेयी को भुलाकर आडवाणी दिखाने के रणनीतिकार थे कुलकर्णी। शुक्रवार को जसवंत-सुधीन्द्र बवाल पर राजनाथ-आडवाणी मिले। पर बवाल अभी खत्म नहीं होगा। अभी तो शुरू हुआ है।

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