सत्ता का सेमीफाइनल था, तो ड्रा ही रहा

Publsihed: 08.Dec.2008, 20:58

उम्मीद से ज्यादा मिला कांग्रेस को। कांग्रेस को राजस्थान पर तो उम्मीद थी। पर दिल्ली, मिजोरम पर कतई नहीं थी। मिजोरम में एमएनएफ की सरकार थी। जो चारों खाने चित हुई। जिन पांच राज्यों के चुनाव नतीजे आए। उनमें कांग्रेस के पास खोने को सिर्फ दिल्ली था। जो उसने खोया नहीं। बीजेपी के पास हारने को तीन राज्य थे। पर वह सिर्फ राजस्थान हारी। दिल्ली में तो कांग्रेस की हैटट्रिक लग गई। ज्योतिबसु के बाद शीला हैटट्रिक वाली दूसरी सीएम हो गई। गुजरात में बीजेपी की हैटट्रिक जरूर लगी। पर मोदी की हैटट्रिक अभी बाकी। अपन दिल्ली में कांग्रेस को जीता नहीं मानते। अलबत्ता दिल्ली में बीजेपी हारी। जिसका फायदा कांग्रेस को मिला। शीला दीक्षित को खुद जीत की उम्मीद नहीं थी। जब लीड मिल रही थी। तो शीला ने खुशी जताने से परहेज किया। बोली- 'पहले नतीजे आ जाने दो, फिर ही बोलूंगी।' राजस्थान में भी कांग्रेस नहीं जीती। अलबत्ता बीजेपी-वसुंधरा आपसी टकराव में हारे। जिसका फायदा कांग्रेस को मिला।

कांग्रेस जीतती, तो  बहुमत मिलता। प्रदेश अध्यक्ष सीपी जोशी जीतते। कार्यकारी अध्यक्ष परसराम मोरदिया जीतते। पूर्व अध्यक्ष बीडी कल्ला-नारायण सिंह जीतते। महिला कांग्रेस अध्यक्ष ममता शर्मा जीततीं। युवा कांग्रेस अध्यक्ष नीरज डांगी जीतते। एनएसयूआई अध्यक्ष धीरज गुर्जर जीतते। सांसद कर्णसिंह यादव-विश्वेंद्र सिंह जीतते। जब पूरा का पूरा कुनबा ही हार गया। तो इसे कांग्रेस की जीत कैसे कहें। कांग्रेस बहुमत के करीब इसलिए पहुंची। क्योंकि जनता ने बीजेपी को हराया। बीजेपी के आधे से ज्यादा मंत्री हार गए। ग्यारह जीते, बारह हारे। सांसद निहालचंद हार गए। रघुवीर कौशल हार गए। डीएस रावत हार गए। श्रीचंद कृपलानी हार गए। वसुंधरा का महिला कार्ड भी नहीं चला। बत्तीस में से तेरह जीतीं। तो कांग्रेस की तेईस में से तेरह जीत गई। सो राजस्थान में बीजेपी चारों खाने चित हुई। पर कांग्रेसी भी वही जीता। जिसके खुद में दम था। सोनिया-राहुल के बूते कोई नहीं जीता। दिल्ली में भी कांग्रेस सोनिया-राहुल के बूते नहीं जीती। न शीला दीक्षित के कारण। अलबत्ता बीजेपी के कारण जीती। बीजेपी ने मल्होत्रा को प्रोजक्ट कर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी। दिल्ली अब साठ-सत्तर के दशक वाली नहीं रही। जब पंजाबियों, बनियों का दबदबा था। यूपी-बिहार की आबादी दिल्ली पर हल्ला बोल चुकी। कांग्रेस ने इसे एक दशक पहले ही पहचान लिया। सो पुराने घोड़े रिटायर कर दिए। यूपी के दीक्षित परिवार की बहु आडप्ट कर ली। बीजेपी साहनी, खुराना, मल्होत्रा, गर्ग, अग्रवाल पर अटकी रही। जिनका अब दिल्ली में बहुमत नहीं। सो बीजेपी की हार उसकी जातीय, क्षेत्रीय संतुलन की नासमझी का नतीजा। बात मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ की। दोनों जगह बीजेपी को पॉजटिव वोट मिला। यों एमपी में छह मंत्री हिम्मत कोठारी, रुस्तम सिंह, गोरी शंकर शेजवाल, चंद्रभान, निर्मला भूरिया, अखंड प्रताप सिंह हारे। पर शिवराज चौहान विवाह योग्य बेटियों के मामा बनकर उभरे। सीएम संगठन ने मिलकर काम किया। तो बीजेपी को जीत मिली। सबसे बड़ा कांटा निकला उमा भारती की हार से। कांग्रेस में तो एक अनार, सौ बीमार थे। सो इसे अपन दिग्गी राजा, कमलनाथ, राहुल सिंह की हार कहें। या सुभाष यादव की। जो पचौरी को हराते-हराते खुद ही हार गए। सोनिया ने किसी के सिर पर हाथ नहीं रखा था। पर कमलनाथ चले थे सीएम बनने। सो कमलनाथ की हार क्यों न कहें। कांग्रेस में सोनिया, राहुल की हार कहने का तो रिवाज ही नहीं। बात रही छत्तीसगढ़ की। मध्यप्रदेश में चौहान मामा थे। तो छत्तीसगढ़ में रमण सिंह चावल वाले बाबा। नक्सलवाद से लड़ने का सल्वाजूड़म फार्मूला जीता। अजित जोगी सल्वाजुड़म के खिलाफ थे। सो जनता ने नकार दिया। पांच राज्य- तीन कांग्रेस की झोली में, दो बीजेपी की। पांचों राज्यों में लोकसभा की 73 सीटें। मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ में चालीस। राजस्थान-दिल्ली-मिजोरम में तैंतीस। अव्वल तो यह सेमीफाइनल था ही नहीं। सेमीफाइनल था, तो ड्रा रहा। सो इन नतीजों का लोकसभा चुनावों पर कोई असर नहीं होना। पर महंगाई-आतंकवाद नहीं चला। बीजेपी को अब दूसरे मुद्दे ढूंढने होंगे।

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