जिंदा कौमें और पांच साल का इंतजार

Publsihed: 03.Nov.2011, 15:35

लोकपाल अभी बना नहीं। पता नहीं जनलोकपाल प्रारूप के अनुरूप बनेगा भी या नहीं। कहीं अन्ना हजारे को मजबूत लोकपाल के लिए फिर से आंदोलन न करना पड़े। लेकिन उससे पहले ही टीम अन्ना ने संसद को सुधारने का बीड़ा उठा लिया है। राइट-टू-रिकॉल के लिए आंदोलन की डुगडुगी बजनी शुरू हो गई है। राइट टू रिकॉल यानी जनता को अपने चुने हुए सांसदों-विधायकों को वापस बुलाने का अधिकार। बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने भी आव देखा न ताव। जयप्रकाश नारायण का नाम लेकर राइट-टू-रिकॉल का समर्थन कर दिया। शरद यादव और नीतिश कुमार समाजवादी परंपरा की उपज हैं। उनके नेता राममनोहर लोहिया कहा करते थे- 'जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं किया करती।' जयप्रकाश नारायण समाजवादी विचारधारा के ही थे। जयप्रकाश नारायण ने जब 1974 में गुजरात सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन शुरू किया, तो उसी समय राइट-टू-रिकॉल का नारा भी बुलंद किया था। नीतिश कुमार ने उसे याद करते हुए कहा है कि इमरजेंसी के बाद 1977 में बनी जनता सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया। नीतिश कुमार उस सरकार में मंत्री नहीं थे। लेकिन वह उस एनडीए सरकार में तो मंत्री थे, जो जार्ज फर्नाडीस और शरद यादव जैसे  पुराने समाजवादियों की मदद से बनी थी। वह खुद भी तो उस सरकार का हिस्सा थे, उन्होंने कब मंत्रिमंडल में राइट-टू-रिकॉल का मुद्दा उठाया। एनडीए के घटक दलों में राइट-टू-रिकॉल को लेकर गहरे मतभेद हैं। ये मतभेद जनता सरकार के समय भी थे, इसलिए 1977 में इस पर विचार तक नहीं हुआ। इस पर सहमति 1989, 1996, 1998, 1999 की चारों सरकारों में भी नहीं बनी। इन चारों सरकारों का जिक्र यहां इसलिए किया जा रहा है, क्योंकि इन चारों सरकारों में राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण के अनुयायी शामिल थे। सिर्फ मोरारजी सरकार के सिर पर ठीकरा फोड़ना ठीक नहीं होगा। नीतिश कुमार 1977 का जिक्र करके कहीं अपने ही सहयोगियों जार्ज फर्नाडीस और शरद यादव को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश कर रहे हों तो अलग बात।

राइट-टू-रिकॉल की बात बहुत लुभावनी और राममनोहर लोहिया के नारे के अनुरूप लगती हैं। लेकिन चुने हुए नुमाइंदों को वापस बुलाने का आंदोलन कहीं लोकतंत्र को कमजोर करने वाला तो नहीं। अभी हमारे लोकतंत्र की हालत यह है कि हमारे नुमाइंदे 15-20 फीसदी लोंगों की ही नुमाइंदगी करते हैं। साठ-सत्तर फीसदी मतदान होता है, जो 25-30 उम्मीदवारों में बंट जाता है। उनमें सबसे ज्यादा वोट हासिल करने वाला अंधों में से एक काना हमारा नुमाइंदा बन जाता है। ऐसे नुमाइंदों को हम तभी हटा सकते हैं, जब पहले मौजूदा लोकतंत्र को मजबूत किया जाए। हमें सबसे पहले मतदान अनिवार्य करना होगा। मतदान नहीं करने वालों को पासपोर्ट, ड्राइविंग लाइसेंस, राशनकार्ड, सब्सिडी पर रसोई गैस, मिट्टी का तेल बंद करना होगा। कम से कम ऐसा करके हम सबको वोट देने के लिए मजबूर कर सकते हैं। आमतौर पर देखा गया है कि शहरी क्षेत्रों में मतदान अपेक्षाकृत कम होता है। हमें देखना चाहिए कि क्या हम ई-वोटिंग का कोई प्रावधान कर सकते हैं। अमिताभ बच्चन कौन बनेगा करोड़पति में ई-वोटिंग करवाकर देशभर में कुछ ही क्षणों में लाखों वोट डलवा लेते हैं। तो क्या इस फार्मूले को देशभर में लागू नहीं किया जा सकता। वोटिंग अनिवार्य करके ई-वोटिंग का प्रावधान किया जाना चाहिए। जिस प्रकार कौन बनेगा करोड़पति में एसएमएस के जरिए ई-वोटिंग करने वाले अपना पांच रुपए का एसएमएस खर्च करते हैं, उसी तरह ई-वोटिंग करने वाले पर पांच रुपए लगाया जा सकता है। इससे वोटों की गिनती भी अपने आप हो जाएगी। दूसरा परिवर्तन यह करने की जरूरत है कि 50 फीसदी से ज्यादा वोट हासिल करने वाले को ही नुमाइंदा बनाया जाए। भले ही इसके लिए दो बार चुनाव करवाना पड़े। अगर किसी चुनाव में किसी को भी 50 फीसदी वोट नहीं मिलते तो पहले नम्बर पर आने वाले दो उम्मीदवारों में दुबारा मतदान करवाया जा सकता है। वोटिंग मशीन में किसी को भी वोट नहीं देने वाला बटन भी लगाया जाना चाहिए। अगर जीतने वाले के वोटों से ठुकराने वालों के वोट ज्यादा हों तो चुनाव को रद्द किया जाना चाहिए।

चुनाव प्रणाली में कम से कम दो तीन परिवर्तन फौरन करने की जरूरत है। सबसे पहले अदालत की तरफ से संज्ञान लिए जाने वाले अभियुक्त के चुनाव लड़ने पर फौरन पाबंदी लगनी चाहिए। चुनाव प्रणाली में ऐसा सुधार करने के लिए वाजपेयी के कार्यकाल में बुलाई गई एक सर्वदलीय बैठक में समाजवादी पार्टी, बसपा और वामपंथियों के साथ दक्षिण की क्षेत्रीय पार्टियों ने भी विरोध किया था। विरोध करने वालों की दलील थी कि राजनीतिक आंदोलनों में पुलिस अकसर एफआईआर दायर करती है और अदालत चार्जशीट कर देती है। सर्वदलीय बैठक में इस मुददे पर गहन चर्चा नहीं हुई। वरना कानून की  उन धाराओं को इससे अलग करने का फैसला किया जा सकता है, जो आमतौर पर राजनीतिक आंदोलनकारियों पर लगाई जाती है। जैसे आपातकाल के दौरान भी मीसा के अलावा बहुत सारे कैदियों पर 107/151 लगाई गई थी। आमतौर पर धरने-प्रदर्शन करने वालों पर 107/151 लगाई जाती है। इसे चुनाव लड़ने से वंचित करने वाली चार्जशीटों से अलग किया जा सकता है। इसी तरह कुछ और ऐसी धाराओं की पहचान की जा सकती है, जिनका किसी आंदोलन के तहत राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर इस्तेमाल होता हो। अगर एक चार्जशीट पर चुनाव से वंचित करने की सहमति न होती हो, तो दो चार्जशीट का प्रावधान किया जा सकता है लेकिन हत्या, बलात्कार, लूटपाट, चोरी, डकैती, अपहरण के चार्जशीट आरोपियों को चुनाव लड़ने से वंचित करना वक्त का तकाजा है। चुनावों में अच्छे उम्मीदवार उतारने का जिम्मा राजनीतिक दलों पर नहीं छोड़ा जा सकता। राजनीतिक दल जब अपनी इच्छा से महिलाओं को तीस फीसदी टिकट देने को तैयार नहीं हैं, तो उनसे बेदाग और अच्छे उम्मीदवारों की उम्मीद करना बेकार है। मौजूदा सरकार को किसी आंदोलन का इंतजार किए बिना चुनाव प्रणाली में इस तरह के कुछ सुधार तुरंत करने की पहल करनी चाहिए।

चुनावों में धनबल के दुरुपयोग को रोकने के लिए भी कुछ ठोस कदम उठाए जाने जरूरी हैं। चुनाव आयोग ने खर्चे पर निगरानी रखने के लिए प्रवेक्षक तैनात करने शुरू किए हैं। जिसका अच्छा नतीजा दिखने लगा है। चुनाव आयोग ने पेड न्यूज के मामले में भी ऐतिहासिक कदम उठाते हुए उत्तर प्रदेश की निर्वाचित विधायक डीपी यादव की पत्नी उमलेश यादव की सदस्यता खत्म कर दी है। भले ही पेड न्यूज के मामले में फैसला लेने में आयोग को साढ़े चार साल का वक्त लग गया, लेकिन जिस महिला विधायक का चुनाव रद्द किया गया है उसके तीन साल तक चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी गई है। यह अच्छी बात है। पेड न्यूज के मामले में कुछ और ठोस कदम उठाए जाने की जरूरत है। देखना होगा कि आने वाले दिनों में पृथ्वीराज चव्हाण और मधुकोड़ा के मामले में चुनाव आयोग का फैसला क्या होता है। राजनीतिक दलों के प्रभाव से मुक्त फैसले की देशभर में तारीफ की जाएगी। हैरानी हुई जब पिछले दिनों सम्पादकों के एक संगठन ने प्रस्ताव पास करके कहा कि मीडिया को लोकपाल के दायरे से अलग रखा जाना चाहिए। इसी तरह की मांग गैर सरकारी संगठन भी कर रहे हैं। मीडिया संगठनों को यह कहने का हक तब दिया जा सकता है जब वे अपने मालिक घरानों को पेड न्यूज से रोकने का माद्दा रखते हों। पिछले चुनाव में क्या क्षेत्रीय प्रिंट और क्या क्षेत्रीय विजुअल मीडिया। दोनों में राजनेताओं को काली कमाई को दोनों हाथों से लूटने की होड़ लगी थी।

स्वीटजरलैंड की भेड़चाल में हम राइट-टू-रिकॉल का कानून बनाकर देश में लोकतंत्र को अस्थिर नहीं कर सकते। हमने 1996 से 1998 के तीन सालों में तीन लोकसभा चुनाव देखे हैं। देश में जरूरत राइट-टू-रिकॉल की नहीं। यह बहुत दूर की बात है। फिलहाल तो लोकसभा और विधानसभा का कार्यकाल पांच साल तय करने की जरूरत है, ताकि आए दिन चुनावों से बचा जा सके। जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार कर सकती हैं। पहले बंदोबस्त अच्छे नुमाइंदे चुनने का होना चाहिए न कि चुने हुए नुमाइंदों को वापस बुलाने का। पहले हम अच्छे नुमाइंदे चुनना तो सीख लें। जरूरत राइट टू रिकॉल की नहीं है। जरूरत चुनाव सुधारों की है। हम जब तक जीतने वाले के लिए पचास फीसदी वोटरों की नुमाइंदगी की शर्त नहीं लगाएंगे, तब तक पचास फीसदी वोटरों को चुने हुए नुमाइंदे को वापस बुलाए जाने का भी हक नहीं दिया जा सकता। फिर लोग तो नाली की सफाई और सड़कों की मरम्मत न होने से परेशान होकर सांसदों विधायकों को वापस बुलाने की मांग करने लगेंगे। जबकि यह काम पंचायतों और नगरपालिकाओं का है। अगर हमें राइट-टू-रिकॉल लागू करना है तो पहले पंचायतों और नगरपालिकाओं में लागू करना चाहिए। छत्तीसगढ़ सरकार ने पंचायतों में लागू किया है और अब तक तीन सरपंच घर भेजे जा चुके हैं। कानून बिहार में भी है लेकिन अभी लागू नहीं हुआ। पहले हमें यह तो समझना चाहिए कि विधायकों और सांसदों का काम क्या है। उनका काम है अच्छे कानून बनाना। राइट टू रिकॉल की शर्त भी यही हो सकती है।

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