आस्था के मुद्दों पर अदालत की भूमिका

Publsihed: 18.Nov.2018, 09:31

सुप्रीमकोर्ट ने संविधान में महिलाओं को मिले बराबरी के कानूनी अधिकार पर फैसला किया है | सवाल यह पैदा होता है कि क्या कोर्ट में बराबरी का हक मांगने के लिए गई महिलाओं की शनी शिगनापुर और सबरीमाला में कोई आस्था है या यह राजनीतिक लड़ाई है |

अजय सेतिया

शनी शिगनापुर और सबरीमाला मंदिरों पर सुप्रीमकोर्ट के फैसलों से हिन्दू समाज के एक वर्ग में पनपे आक्रोश से अदालत की भूमिका पर सवाल खड़े होने शुरू हुए हैं | हिन्दू समाज कितना आक्रोशित है , इस का अनुमान सबरीमाला में देखने को मिल रहा है , जहाँ केरल सरकार चाह कर भी सुप्रीमकोर्ट का फैसला लागू नहीं करवा पा रही | सुप्रीमकोर्ट के फैसले के बाद जब मंदिर के द्वार खुले तो प्रशासन ने तीन महिलाओं को ले जाने की कोशिश की थी , लेकिन श्रद्धालुओं की भीड़ ने उन का ही नहीं, प्रशासन का भी रास्ता रोक दिया | अंतत: वे बिना दर्शन किए ही वापस लौटी |

शनी शिगनापुर में महिलाओं को दर्शन के अधिकार की लड़ाई लड़ने वाली मुम्बई निवासी तृप्ती देसाई 16 नवम्बर को सबरीमाला के दर्शन करने कोच्ची गई थी , लेकिन हजारों की भीड़ ने सुबह सवेरे चार बजे से कोच्ची हवाई अड्डे का ही घेराव शुरू कर दिया | प्रशासन ने क़ानून व्यवस्था  के नाम पर तृप्ति देसाई को हवाई अड्डे से बाहर तक नहीं निकलने दिया, आखिर शाम छह बजे तृप्ती देसाई को मुम्बई वापस लौटने के लिए मना लिया गया | हैरानी की बात यह है कि कोर्ट के फैसले से जिन महिलाओं को सबरीमाला के दर्शन करने का अधिकार मिला है, वे भी हजारों की तादाद में सुप्रीमकोर्ट के फैसले का विरोध कर रही हैं | उन का कहना है कि कोर्ट उन के आस्था के मामले में दखल नहीं दे सकती |

शनी शिगनापुर और सबरीमाला मंदिरों पर सुप्रीमकोर्ट के फैसलों ने दो सवाल खड़े किए हैं | पहला सवाल तो यह है कि धर्म और आस्था के मामले में कोर्ट को दखल देने का अधिकार है या नहीं | दूसरा सवाल यह है कि महिलाओं को मंदिरों में प्रवेश का पुरुषों की तरह बराबरी का अधिकार क्यों नहीं होना चाहिए | दोनों ही सवाल बहुत पेचीदा हैं , सुप्रीमकोर्ट खुद आस्था के मुद्दे पर भ्रमित है  | रामजन्मभूमि मंदिर पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीमकोर्ट में चुनौती देते समय सुन्नी वक्फ बोर्ड की दलील थी कि हाईकोर्ट ने हिन्दुओं की आस्था को ध्यान में रख कर फैसला किया है | सुप्रीमकोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले पर स्टे देते हुए साफ़ किया था, कि वह आस्था के मुद्दे पर सुनवाई नहीं करेगा , वह सिर्फ विवादित 2.77 एकड़ भूमि की मल्कियत पर फैसला देगा |

शनी शिगनापुर और सबरीमाला मंदिर में भी हिन्दुओं की आस्था पर आधारित परम्पराएं थी | शनि शिगनापुर में महिलाओं को शनी की मूर्ति को छूने की आज़ादी नहीं थी , और सबरीमाला में 11 वर्ष से 55 वर्ष उम्र तक की महिलाओं को प्रवेश की परम्परा नहीं थी, जिस का समाज का हर वर्ग सदियों से अनुपालन कर रहा था | सुप्रीमकोर्ट के फैसले के खिलाफ सड़कों पर उतरे हिन्दू समाज का मानना है कि सुप्रीमकोर्ट ने उनकी आस्था और सामाजिक आम सहमती में दखल दिया है | जबकि सुप्रीमकोर्ट ने संविधान में महिलाओं को मिले बराबरी के कानूनी अधिकार पर फैसला किया है | सवाल यह पैदा होता है कि क्या कोर्ट में बराबरी का हक मांगने के लिए गई महिलाओं की शनी शिगनापुर और सबरीमाला में कोई आस्था है या यह राजनीतिक लड़ाई है | अचानक महिला आंदोलनकारी बन कर उभरी तृप्ती देसाई और उन के साथ जुडी इक्का दुक्का महिलाएं अपनी दिनचर्या में मंदिर जाती भी हैं क्या | वे खुद भी भ्रमित हैं कि वे बराबरी का हक पाने के लिए लड़ रही हैं या आस्था का हक पाने के लिए लड़ रही हैं |

हिन्दू समाज ने अपनी कई परम्पराओं का त्याग किया है | कुछ परम्पराएं क़ानून के रास्ते से भी टूटी हैं, जैसे बहु विवाह, बाल विवाह और दहेज़ की परम्पराएं क़ानून के रास्ते टूटी , लेकिन क़ानून सामाजिक सहमती बनाने के बाद ही बनता है, इसी लिए संविधान में क़ानून बनाने का अधिकार समाज से चुन कर आए जनप्रतिनिधियों को दिया गया है, कोर्ट को नहीं | अब सवाल यह खड़ा होता है कि क्या हिन्दू समाज को खुद इस बात पर मनन नहीं करना चाहिए कि महिलाओं को मंदिरों में प्रवेश का बराबरी का हक मिलना चाहिए | हाँ , कुछ शर्तें लगाई जा सकती हैं , कुछ शर्तें पुरुषों पर भी लगाई जाती हैं , जैसे कुछ मंदिरों में पुरुष बिना धोती पहने नहीं जा सकते |

जब शनी शिगनापुर में महिलाओं के प्रवेश का सवाल खड़ा हुआ था , तब राष्ट्रीय स्वय सेवक संघ के महासचिव भैय्या जी जोशी ने कहा था कि मंदिरों में प्रवेश का महिलाओं को बराबरी का हक मिलना चाहिए , लेकिन यह बदलाव समाज के भीतर से आम सहमती बना का लाया जाना चाहिए | यही बात उन्होंने सबरीमाला मंदिर के बारे में भी कही है |  

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