तालिबान -अमेरिका समझौता भारत के लिए चिंता

Publsihed: 01.Mar.2020, 21:40
मनु चौधरी / तालिबान और अमेरिका के बीच अफगानिस्‍तान को लेकर होने वाला समझौता भारत के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। अमेरिका भारत की चिंताओं से अवगत तो है लेकिन यहां पर उसकी अपनी मजबूरी काफी बड़ी है। तालिबान का यहां पर दोबारा काबिज होना भारत की क्षेत्रीए सुरक्षा के लिए भी एक बड़ा खतरा है। दरअसल, भारत नहीं चाहता है कि तालिबान जैसा कोई भी आतंकी संगठन अफगानिस्‍तान में अपनी सरकार बनाए। वहीं तालिबान का इस समझौते के पीछे पूरा मकसद अफगानिस्‍तान में दोबारा सरकार कायम करना है। इसमें उसकी मदद पाकिस्‍तान भी कर रहा है। पाकिस्‍तान चाहता है कि अफगानिस्‍तान की वर्तमान में चुनी गई सरकार की जगह तालिबान की हुकूमत कायम हो। इससे पहले जब अफगानिस्‍तान में तालिबान ने अपनी सरकार बनाई थी तब केवल पाकिस्‍तान और क़तर ने ही उसको मान्‍यता दी थी। इसकी वजह एक ये भी है क्‍योंकि अफगानिस्‍तान की वर्तमान सरकार भारत के हितों की पक्षधर रही है। भारत और अफगानिस्‍तान की सरकार के बीच बेहतर संबंध भी हैं। ऐसे में भारत ये सुनिश्चित करना चाहता है कि अमेरिका को ये भी देखना होगा कि उनके वहां के चले जाने से अफगानिस्तान में एक शून्‍य न बन जाए। यदि ऐसा होता है तब तालिबान फिर से वहां पर हावी हो जाएगा और हालात फिर से खराब हो जाएंगे। वहीं दूसरी तरफ पाकिस्तान तालिबान का साथ लेकर भारत में अशांति पैदा कर सकता है क्योंकि तालिबान के साथ पाकिस्‍तान के अच्‍छे संबंध हैं। इस समझौते के बाद पाकिस्‍तान अपने आतंकी शिविर अपने देश से हटाकर अफगानिस्‍तान भेज सकता है। साथ ही दुनिया को दिखाने की कोशिश कर सकता है कि वह आ‍तंकियों पर कार्यवाही कर रहा है और फिर वह आसानी से एफएटीएफ की ग्रे लिस्‍ट से बाहर आ जाएगा। इसके अलावा डर ये भी है कि तालिबानी आतंकी अफगानिस्‍तान में पूरी तरह से कब्‍जा करने के बाद जम्मू कश्‍मीर की ओर बढ़ सकते हैं। जहां एक तरफ देश के भीतर ही एक तालिबान पनप रहा है और भारत सरकार चाहा कर भी उस साँप का जोकि अज़गर बनने की और अग्रसर है उसका  मुँह कुचल पाने में असमर्थ साबित हो रही है क्योंकि सेक्युलर का आवरण बहुत भारी है।  जिसको उतार फैकना मुश्किल ही नहीं न मुमकिन है।  मैं ये कतई नहीं कह रही कि सेक्युलर होना बुरा है लेकिन सेक्युलर का आवरण ओढ़ कर अपने देश में अराजकता और अराजक तत्वों को बढ़ावा देना देश -द्रोह से कम नहीं। फिर अब तो हमको देश के बाहर के तालिबान का भी सामना करने को तैयार होना पड़ेगा। 
 
अभी तक अफगानिस्तान के विकास के लिए भारत अरबों रुपए खर्च कर चुका है। इस वक्त भी कई विकास कार्य चल रहे हैं। भारत को आशंका है कि तालिबान के हाथ में सत्ता आने के बाद वह इन विकास कार्यों को बंद करा सकता है। भारत अफगानिस्तान में महिला सुरक्षा और उनके अधिकारों की भी बात करता रहा है। वहीं तालिबान हमेशा से महिलाओं पर अत्याचार का समर्थन करता रहा है। वह महिलाओं पर कई तरह की बंदिशें लगाने की बात करता रहा है। तालिबान 16 साल की लड़की की शादी का समर्थन करता है। समझौते में महिलाओं की आजादी का कोई जिक्र नहीं है। इसी लिए इस समझौते को लेकर सबसे बड़ी चिंता अफगानिस्‍तान की महिलाओं को भी है। ऐसा इसलिए क्‍योंकि उन्‍होंने तालिबान के उस दौर को करीब से देखा है जो आज भी उनके मन में भविष्‍य को लेकर भय पैदा कर रहा है। 1996-2001 के बीच अफगानिस्‍तान में तालिबान की हुकूमत थी। तालिबान की हुकूमत में अफगानिस्‍तान का नाम इस्‍लामिक अमीरात ऑफ अफगानिस्‍तान था। 1990 में अफगानिस्‍तान से सोवियत संघ की सेनाओं की वापसी तक तालिबान एक बड़ा आतंकी संंगठन बन चुका था। सोवियत रूस के यहां से जाने के बाद वह लगातार अपने छेत्र बढ़ाता रहा। 1996 से पहले ही उसने करीब दो तिहाई से भी अधिक क्षेत्र पर कब्‍जा कर लिया था। इसके बाद काबुल भी उसकी पहुंच में आ गया। अफगानिस्‍तान की तालिबान सरकार को जिन दो देशों ने मान्‍यता दी थी उसमें केवल कतर और पाकिस्‍तान शामिल था। कतर में ही तालिबान का राजनीतिक कार्यालय भी है जो आज भी बादस्‍तूर काम करता है। तालिबान को पाकिस्‍तान से हर संभव मदद मिलती रही है। इसमें आर्थिक और रणनीतिक मदद भी शामिल रही है।
 
अफगानिस्तान में शांति के लिए अमेरिका और तालिबान के बीच जो शांति समझौता हुआ है उसने कई अहम् सवाल खड़े किए हैं। भारत के लिहाज से कतर में हुए इस समझौते में कुछ भी नहीं है। शांति समझौता अमेरिका के विशेष प्रतिनिधि जालमे खालिलजाद और तालिबान के कमांडर मुल्ला अब्दुल गनी बरादार के बीच हुआ है। समझौते के वक्त अमेरिकी रक्षा मंत्री माइक पॉम्पियो और विदेश मंत्री मार्क एस्पर भी मौजूद रहे। समझौते के बाद तालिबान की तरफ से जो बयान दिए गए वह भारत के लिए चिंताजनक हैं। तालिबान के प्रतिनिधि अब्दुल्लाह बिरादर ने समझौते में मदद के लिए पाकिस्तान का नाम तो लिया, लेकिन भारत का कहीं कोई जिक्र नहीं किया । अब्दुल्लाह बिरादर ने अफगानिस्तान में राष्ट्रपति अशरफ गनी का भी नाम नहीं लिया। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि तालिबान क्या रुख अख़्तियार करने वाला है। घर पर किसका शासन चलेगा इसका समझौता भी हो गया और घर के मालिक को ख़बर तक नहीं। इस समझौते में अफगानिस्तान सरकार की सक्रिय भागीदारी ना होने के कारण भारत पहले से चिंता जताता रहा है। हालांकि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के भारत दौरे के दौरान ऐसा लग रहा था कि इसमें भारत की भूमिका भी कुछ ना कुछ होगी इसीलिए ट्रंप ने दिल्ली में इसके संकेत भी दिए थे , शायद इसी के बाद अमेरिका ने भारत से भी शांति समझौते में अपना प्रतिनिधि भेजने का अनुरोध किया था । इसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कतर में हो रहे समझौते के लिए वहां भारत के राजदूत पी कुमारन को वहां मौजूद रहने को कहा। साथ ही विदेश सचिव हर्षवर्धन सिंगला को काबुल भेजा गया, जिस समय दोहा में अमेरिका और तालिबान के बीच शांति समझौते पर दस्तखत हो रहे थे सिंगला काबुल में अफगान सरकार के साथ भारतीय हितों की बात कर रहे थे।
 
हालांकि शांति समझौते पर दस्तखत से पहले अमेरिकी रक्षा मंत्री माइक पॉम्पियो ने कहा है अगर अफगानिस्तान के सभी पक्षों ने इस पर अमल नहीं किया तो यह रद्दी का ढेर बन कर रह जाएगा। इसके बाद तालिबान प्रतिनिधि अब्दुल्लाह बिरादर ने अपने संबोधन में जिस तरह की भाषा का जिक्र किया वह 90 के दशक के तालिबान सोच से बिल्कुल भी अलग नहीं है । बिरादर ने कहा कि इस्लामी मूल्यों की रक्षा के लिए अफगानिस्तान में सभी को एकजुट हो जाना चाहिए वह बार-बार कट्टर इस्लामी व्यवस्था की बात कर रहे थे। #PMOINDIA,#HMOINDIA.#Defence Ajaykumar, RanvirSharda .

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Ajay Setia

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